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________________ कर्मसिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता १०९ जैनकर्मविज्ञान में कर्म के साथ-साथ धर्म का रहस्य भी जैन कर्म-विज्ञान में जहाँ कर्मों के आगमन (आनव) और बन्ध का रहस्य बताया गया है, वहाँ कर्म-निरोध (संवर) और कर्म के आंशिक क्षय (निर्जरा) का रहस्य भी बताया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो कर्मविज्ञान में कर्म और धर्म दोनों की गहन चर्चा है। कर्म का कार्य है-आनवों और बंधनों में आत्मा को डालना और धर्म का कार्य हैसंवर और निर्जरा द्वारा क्रमशः वर्तमान में आने वाले नये कर्मों का निरोध और अतीत में बद्ध कर्मों का क्षय करना । कर्म-विज्ञान का यह सन्देश है कि अतीत के कर्मबन्धनों को तथा वर्तमान में भी बन्धन के रूप में जकड़ने के लिए आने वाले कर्मों को जानो, समझो और फिर अतीत की उस बद्धर्मराशि का पृथक्-पृथक् विश्लेषण और वर्गीकरण करके तब अतीत में बद्ध कर्मबन्धनों को तोड़ डालो, साथ ही नये तथा बन्धनरूप में जकड़ने के लिए आने वाले कर्मों को भी वापस मोड़ दो। इतना ही नहीं, कर्मविज्ञान कर्म के कार्यों के साथ-साथ धर्म के कार्यों का निरूपण करते हुए कहता है कि अतीत के कर्म-कुसंस्कारों को क्षीण कर दो, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, ईर्ष्या, काम, मोह, मद, मत्सर, आदि वृत्तियों का शोधन करो; मूर्च्छा और लालसा, कामना और आसक्ति को, ममता और भ्रान्ति को तिलांजलि दे दो, आत्मचेतना पर आत्मा के निजी गुणों-ज्ञान-दर्शन-शक्ति-आनन्दरूप गुणों पर आए हुए या छाये हुए आवरणों को हटा दो। धर्म के नाम से प्रचलित अहिंसा, संयम, तप आदि तथा धर्म-शुक्लध्यान के साथ प्रशंसा - प्रसिद्धिलिप्सा, विषयसुखादिरूप फलाकांक्षा, प्रदर्शनकामना आदि कषाय-कालुष्यों को मिटाना भी सद्धर्म का मुख्य प्रयोजन है। इसी प्रकार धर्म के नाम से प्रचलित जो भी कुरूढ़ि, कुरीति या गलत परम्परा हो, सिद्धान्त-बाधक, आत्म- विकासघातक क्रियाएँ हों, उन्हें भी कर्मबन्धकारी समझ कर तोड़ डालना भी धर्म का कार्य है। जो कुरूढ़ियाँ हिंसा, झूठ, चोरी, ठगी, दम्भ, मायाचार, व्यभिचार, शिकार, हत्याकाण्ड, बलि (प्राणिवध) के आधार पर चलती या पलती हों, उन्हें भी तिलाञ्जलि देना धर्माचरण है। इसीलिए कर्मविज्ञानमर्मज्ञ सर्वज्ञ महावीर प्रभु ने सूत्रकृतांग में सर्वप्रथम इसी गाथा के द्वारा अतीत की कर्मबन्धनात्मक ग्रन्थी को जानने, खोजने और तोड़ने का निर्देश करते हुए कहा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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