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________________ १0८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) नमिराजर्षि की वर्तमान में स्थिरता की प्रशंसा ___ नमिराजर्षि जब दीक्षा लेने को उद्यत हुए तब ब्राह्मणवेषी इन्द्र ने उनके समक्ष अनेकानेक आनववर्द्धक एवं कर्म-बन्धकारक समस्याएँ रखीं, जो उन्हें अतीत की पकड़ से मुक्त होने नहीं दे पातीं, परन्तु कर्मसिद्धान्त-मर्मज्ञ नमि राजर्षि ने इन सब कर्मानव एवं कर्मबन्ध की हेतुभूत समस्याओं का समाधान वर्तमान में संवर निर्जरारूप सद्धर्म में दृढ़ रहकर कर लिया और इन्द्र के सभी प्रश्नों का तदनुकूल समाधान कर दिया। अतः इन्द्र के द्वारा ली गई कठोर परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात् वर्तमान में संवर-निर्जरारूप धर्म या ज्ञाता-द्रष्टाभावरूप आत्म-स्वभाव में दृढ़तापूर्वक स्थिर हुए नमिराजर्षि की प्रशंसा में बरवस इन्द्र ने ये उद्गार निकाले - "अहो राजर्षि! सचमुच आपने क्रोध को जीत लिया है, मान (अहंकार) को पराजित कर दिया है, माया (कपट) का निराकरण कर दिया है और लोभ को भी वश में कर लिया है। धन्य है, आपकी सच्ची ऋजुता (सरलता) को, धन्य है आपकी मृदुता को, आपकी उत्तम क्षमा प्रशंसनीय है और आपकी उत्तम निर्लोभता (मुक्ति) भी अभिनन्दनीय है। भंते! आप यहाँ (वर्तमान में) भी उत्तम हैं और (भविष्य में) भी उत्तम होंगे। आप सर्वकर्मरज से मुक्त होकर लोक में उत्तमोत्तम सिद्धि (मुक्ति) स्थान को प्राप्त करेंगे।'' यह है-नमिराजर्षि द्वारा अतीत की समस्त स्मृतियों या बंधन-ग्रस्तताओं से मुक्त होकर वर्तमान में ज्ञाता-द्रष्टा होकर संवर-निर्जरारूप धर्म में स्थिर होने का ज्वलन्त उदाहरण! इसी कारण नमिराजर्षि संवर-निर्जरा-साधना की फलप्राप्ति तथा भविष्य में साधना के फलस्वरूप इहलौकिक-पारलौकिक भोगों की प्राप्ति की वांछा (निदान) आदि में नहीं फंसे, अर्थात-भविष्य की सुखद कल्पनाओं के मोहक जाल में भी नहीं फंसे। इसीलिए इन्द्र ने उनकी वर्तमानक्षणजीवी साधना की प्रशंसा की। १. देखें, उत्तराध्ययन सूत्र के ९वें नमिपवज्जा नामक अध्ययन में इन्द्र के प्रशंसात्मक उद्गार(क) अहो ते निज्जिओ कोहो, अहो माणो पराजिओ। अहो निरछिया माया, अहोलोभो वसीकओ॥ (ख) अहो ते अज्जवं साहु अहो ते साहु मद्दवं। अहो ते उत्तमा खंती अहो ते मुत्ति उत्तमा ।। (ग) इहंसि उत्तमो भंते, पच्छा होहसि उत्तमो। लोगुत्तमुत्तमं ठाणं सिद्धिं गच्छसि नीरओ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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