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कर्मसिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता १०७
यह है कर्मसिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में आम्रव के स्थान में संवर में दृढ़ रहने का ज्वलन्त उदाहरण तथा अतीत की पकड़ से मुक्त होकर वर्तमान में दृढ़तापूर्वक जीने और टिकने का पुरुषार्थ ।
वर्तमान में दृढ़ वही, जो ज्ञाता-द्रष्टा भाव या आत्मभाव में स्थिर रहता है।
वास्तव में जो साधक स्थूलभद्र मुनि की भांति धर्म-शुक्लध्यान में या आत्म-स्वभाव स्थिर हो जाता है, वह अतीत की स्मृतियों को उधेड़ता नहीं और न ही भविष्य की कल्पना में डुबकी लगाता है। वह अतीत की रागद्वेषयुक्त पकड़ से मुक्त होकर वर्तमानकालीन राग-द्वेष-मुक्त क्षण का अनुभव करने लगता है। वह वर्तमान में जीवनयात्रा में उपयोगी अनिवार्य क्रियाएँ करता है, परन्तु रहता है - ज्ञाता-द्रष्टा बनकर । अतः वह कर्म-बन्धन से असम्बद्ध रहता है। वर्तमान में ज्ञाता - द्रष्टाभाव में रहने वाला साधक किसी भी प्रवृत्ति, परिस्थिति, क्रिया, इष्टानिष्ट संयोग आदि पर प्रीति- अप्रीति या राग-द्वेष, मोह या द्रोह, अथवा आसक्ति घृणा नहीं करता। यह शुद्ध चेतना का प्रयोग है। इस प्रकार कर्म-सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में वह अतीत में बद्ध कर्मों का क्षय (निर्जरा) और वर्तमान में नये आने वाले कर्मों का संवर (निरोध) कर लेता है । '
प्राचीन और नवीन सभी समस्याओं का हल : वर्तमान में संवर निर्जरा में स्थिर रहना
कोई कह सकता है कि यह तो कर्मसिद्धान्त के द्वारा वर्तमानकालिक समस्याओं को सुलझाने के बदले उन समस्याओं से मुख मोड़ना हुआ । परन्तु कर्मसिद्धान्तमर्मज्ञ कहते हैं कि ये समस्याएँ अतीतकालिक कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त हुई हैं, इनमें उलझने से या इन्हीं की उधेड़-बुन में रहने से समस्याएँ सुलझने के बजाय और अधिक उलझेंगी । व्यक्ति आर्त्त-रौद्रध्यान में पड़कर राग-द्वेष-कषाय आदि विकारों से ग्रस्त होकर नये-नये अशुभकर्मों को और बाँध लेगा, पुराने कर्मों का क्षय होगा नहीं । ऐसी स्थिति में पुरानी समस्याएँ सुलझेंगी नहीं, नई-नई समस्याएँ अधिकाधिक पैदा होती जाएँगी।
अतः कर्म-सिद्धान्त कहता है कि आम्रव और बंध के चक्कर में न पड़कर संवर और निर्जरा को अपनाओ, जिससे पुरानी समस्याएँ हल हो जाएँगी और नई समस्याएँ पैदा नहीं होंगी। सामाजिक परिस्थितिवश पैदा होंगी तो भी कर्मसिद्धान्त-मर्मज्ञ व्यक्ति उन्हें शीघ्र ही हल कर सकेगा।
१. कर्मवाद से भावांश पृ. १६६
२. आम्रवो भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् ।
इतीयमार्हती दृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ।
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- आ. हेम
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