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________________ जैन कर्मविज्ञान की महत्ता के मापदण्ड अन्य दार्शनिकों और विचारकों का कर्म सम्बन्धी मन्तव्य अधूरा विश्व के प्रायः सभी दार्शनिकों और विचारकों ने कर्मसिद्धान्त पर अपना-अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। भारतीय तत्त्वचिन्तकों ने तो कर्मसिद्धान्त पर कार्यकारणभाव की दृष्टि से गहन अनुचिन्तन किया है। विश्व के विशाल मंच पर सर्वत्र प्राणियों की . विविधता, विचित्रता और विषमता देखकर कुछ प्रबुद्ध विचारकों ने कर्मविज्ञान के सम्बन्ध में गम्भीर गवेषणा की है। भारत के सामान्य जन-जीवन का यह कर्मसूत्र भी रहा है-“कर्म-प्रधान विश्व रधि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।'' प्राणिमात्र को जो कुछ सुख-दुःख की उपलब्धि होती है, वह स्वकृत कर्म का ही प्रतिफल है। कर्म से बँधा हुआ जीव अनादिकाल से संसार की नाना गतियों और योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। कर्मवाद के सम्बन्ध में अन्य दार्शनिकों और विचारकों द्वारा इतना सब कहने के बावजूद भी कई दर्शन कर्म की सर्वांगीण एवं सर्वप्राणिगत गतिविधि के विषय में अपना चिन्तन प्रस्तुत . नहीं कर सके हैं। कई पाश्चात्य धर्म एवं दर्शन तो मानवमात्र तक ही कर्म का विचार प्रस्तुत कर सके हैं। ...कतिपय भारतीय एवं पाश्चात्य धर्मों एवं दर्शनों तथा मत-पंथों ने तो मनुष्यगति काही एवं केवल स्वर्ग-नरक तक का ही विचार किया है, कर्म से सर्वथा मुक्तिरूप मोक्ष तक उनकी विचारधारा नहीं पहुंची है, वे स्वर्ग के तट पर आकर ही रुक गए हैं; और मनुष्यजाति के कामनामूलक लौकिक कर्मों, सामाजिक कर्मों तक ही दौड़ लगा सके हैं। उनकी गति-मति निष्काम कर्म तक नहीं पहुंची है; और न ही उन्होंने कर्म से सर्वथा मुक्त होने का उपाय बताया है। जैन कर्मविज्ञान की महत्ता का मूल्यांकन जैनकर्म-विज्ञान की महत्ता इसी पर से आँकी जा सकती है कि उसने सर्व प्राणियों अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों और उनमें भी नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य १. रामचरितमानस से। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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