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________________ कर्मसिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता ९७ वर्तमान जीवन के व्यवहार, आचरण या स्वभाव को देखकर भी वह समझ सकता है कि इसका अतीत कैसा था ? अथवा इसने क्या सोचा-विचारा था ? इसका चिन्तन कैसा था ? इसका आचरण कैसा था? इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति के वर्तमानकालीन कर्मों की अवस्थाओं को देखकर तथा उसके आचरण एवं व्यवहार को परखकर यह भी जाना जा सकता है कि यह व्यक्ति भविष्य में किस प्रकार का चिन्तन-मनन, आचरण और व्यवहार करेगा? इस प्रकार कर्मसिद्धान्त के माध्यम से अतीत को पढ़ा तथा भविष्य को जाना-देखा जा सकता है।' वर्तमान जीवनयात्रा का सम्बन्ध अतीत यात्रा से है वास्तव में देखा जाए तो कर्म की चर्चा का अर्थ है - अतीत की चर्चा । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है—अतीत में प्राणी ने जो कुछ किया है, उसका सम्बन्ध उसकी आत्मा से स्थापित हो गया है। प्राणी की वर्तमान जीवनयात्रा का सम्बन्ध अतीत की यात्रा से है। यही है कर्मविज्ञान की दृष्टि से वर्तमान के माध्यम से अतीत को समझने का प्रयास। प्राचीन जैन कथाओं में भी अतीन्द्रिय ज्ञानियों द्वारा भूत-भ -भविष्य कथन प्राचीन जैन कथाओं एवं चरित्रों में हम पढ़ते हैं, कि एक व्यक्ति अत्यन्त वैभवशाली था अथवा धनाढ्य व्यक्ति का पुत्र था। वह अकस्मात् निर्धन हो गया, घर-बार बिकने लगा। दर-दर का मोहताज हो गया । इस विपद्ग्रस्त स्थिति का कारण जानने के लिए वह किसी अतीन्द्रिय ज्ञानी' ( अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी या केवलज्ञानी) ऋषि-मुनि के पास जाता है और विनयपूर्वक पूछता है - "भगवन् ! मैं इस समय जिस विपद्ग्रस्त स्थिति में हूँ, वह किस कर्म का फल (विपाक ) है ? मैंने ऐसा क्या दुष्कर्म किया था, जिसका यह दुःखरूप विपाक मुझे भोगना पड़ रहा है ?" इसके उत्तर में वे कहते हैं- “तुमने अमुक जीवन में या इसी जीवन में अमुक समय ऐसा दुष्कर्म-अशुभकर्म किया था, जिसका यह दुष्फल है। " इसी प्रकार मगधसम्राट श्रेणिक के पुत्र कोणिक के वर्तमान पापकर्मयुक्त जीवन को देखकर भगवान् महावीर ने उससे यह कहा था कि 'तुम मर कर कहाँ जाओगे ?' यह मुझसे न पूछ कर अपने कृतकर्मों से ही पूछ लो । इस पर कोणिक ने कहा- "भगवन् ! [! मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूँ।” भगवान महावीर ने कहा- “कोणिक ! तुमने जैसे अनिष्ट कर्म वर्तमान में किये हैं, उनके अनुसार तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल नहीं है। तुम मर १. कर्मवाद (पृ. १६५ ) में प्रतिपादित भावांश २. देखें - शालिभद्र चरित्र, हरिषेण महाषेण चरित्र आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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