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९६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
द्वारा आते हुए कर्मों का निरोध करने की साधना की, फलतः उनका भविष्य उज्ज्वलता हो गया ।'
अनाथीमुनि ने भी अतीत को पढ़ा, वर्तमान को सुधार कर उज्जवल बनाया
हरिकेशबल मुनि की तरह अनाथी मुनि ने भी अतीत को पढ़ा अपने वर्तमान के देखकर। उन्होंने देखा कि “कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से वर्तमान जीवन में मुझे प्रचुर भोग-साधन मिले हैं, परन्तु उन भोगसाधनों की आसक्ति में फंसकर मैं अनाथ हो गया. अर्थ-काम को प्रधानता देकर धर्म ( संवर - निर्जरा रूप) को भूल गया । इसी अनाथत अर्थात्-परपदार्थों की परवशता के फलस्वरूप मैं धर्मध्यान से विमुख हो गया । पूर्वकृत अशुभ कर्मों के फलस्वरूप प्रबल चक्षुवेदना हुई, जिसे मैं समभाव से नहीं सह सका आर्त्तध्यान में ग्रस्त हो गया। अगर मुझे शान्ति प्राप्त करनी है तो पूर्वकृत सत्कर्मों के. फलस्वरूप प्राप्त भोगों के प्राचुर्य की परवशता (अनाथता) का त्याग करके तथा दुष्कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त चक्षुवेदना को समभाव से सहन करके क्षान्त (समभाव से कष्टसहिष्णु), दांत (इन्द्रियों और मन पर संयमी ) और निरारम्भ (पूर्ण अहिंसक ) अनगार बन जाना चाहिए ।"
बस, इसी प्रकार अतीत को पढ़कर उन्होंने वर्तमान में प्राप्त भोगों का त्याग कर दिया, संयम मार्ग अपनाकर सनाथ बने और वर्तमान को सुधार कर भविष्य को शान्त, सनाथ एवं उज्ज्वलतम बना लिया।
मगधनरेश श्रेणिक ने भी उनकी प्रशंसा में ये उद्गार निकाले - "हे महर्षि ! आपने मनुष्य जन्म को सुलब्ध और सार्थक कर लिया, मनुष्य जन्म प्राप्ति का उत्तम लाभ भी आपने प्राप्त कर लिया। वास्तव में आप ही सनाथ और सबान्धव हैं।"२
किसी के भी अतीत और भविष्य को इस तरह जाना- देखा जा सकता है
इसी प्रकार कर्मविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में यदि कोई व्यक्ति कुशलतापूर्वक सूक्ष्म दृष्टि से वर्तमान का निरीक्षण करे तो अपने अतीत को जान सकता है। इतना ही नहीं, , दूसरे के
१.
२.
(क) देखें - उत्तराध्ययन सूत्र (अ.१, गा.४८) में इस तथ्य को उजागर करने वाली गाथास देव-गंधव्व-मणुस्स-पूइए, चइत्तु देहं मल-पंकपुव्वयं ।
सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिदिए ।
(ख) उत्तराध्ययन, १२वाँ अध्ययन
(क) देखिये - उत्तराध्ययन सूत्र अ. २० में अनाथीमुनि की जीवन गाथाएँ ।
(ख) तुझं सुलद्धं खु मणुस्स - जम्म; लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी ! साहाय बांधवा, जंभे ठिया मग्गे जिणुत्तमाणं ॥
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-वही.अ.२०,गा. ५५
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