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सामाजिक सन्दर्भ में-उपयोगिता के प्रति आक्षेप और समाधान ९१
होकर दुःख का अनुभव करे तो समझदार आदमी उसे जरूर कहेगा कि तूने भूल की। पाँव में से सूई निकालना ठीक था, क्योंकि वह उसकी योग्य जगह नहीं थी, परन्तु यदि उसके बिना जीवन चलता ही न हो तो उसे फैंक देने में जरूर भूल है। ठीक तरह से उपयोग करने के लिए योग्य रीति से उसका संग्रह करना ही पाँव में से सूई निकालने का सच्चा अर्थ है।
जो न्याय सूई के लिये है, वही न्याय सामूहिक कर्म के लिए भी है। केवल वैयक्तिक (निपट स्वार्थ की) दृष्टि से जीवन जीना सामूहिक जीवन की (आत्मीयता या आत्मौपम्य) दृष्टि में सूई भोंकने के बराबर है। इस सूई को निकाल कर उसका ठीक तरह से उपयोग करने का मतलब है'-सामूहिक जीवन (के प्रति आत्मीयता या आत्मतुल्यता) की जिम्मेदारी को बुद्धिपूर्वक स्वीकार करके जीवन बिताना। ऐसा जीवन ही व्यक्ति की जीवन्मुक्ति है। जैसे-जैसे हर व्यक्ति अपनी वासना-शुद्धि द्वारा सामूहिक जीवन (में प्रविष्ट हो जाने वाले राग-द्वेष, तुच्छ स्वार्थ, मोह, द्वेष, रोष, घृणा, ईर्ष्या, अहंकार आदि) के मैल को कम करता जाता है, वैसे-वैसे दुःख मुक्ति (कर्मबन्ध से मुक्ति-निवृत्ति) का विशेष अनुभव करता है। इस प्रकार विचार करने पर कर्म ही धर्म (शुद्ध-अवन्धक कर्म या अकर्म) बन जाता है।" अहिंसादि धर्मरूप रस के लिए शुद्ध कर्मरूप छिलका जरूरी
"अमुक फल का अर्थ है-रस के साथ छिलका भी। छिलका नहीं हो तो रस कैसे टिक सकता है ? और रस-रहित छिलका भी फल नहीं है। उसी तरह धर्म तो कर्म का रस है और कर्म सिर्फ धर्म की छाल है। दोनों का ठीक तरह से सम्मिश्रण हो, तभी वे जीवन-फल प्रकट कर सकते हैं। कर्म के आलम्बन के बिना वैयक्तिक तथा सामूहिक जीवन की शुद्धिरूप धर्म रहेगा ही कहाँ ? और ऐसी शुद्धि (राग-द्वेष, काम, मोह, आसक्ति, क्रोधादि विकारों की सफाई) न हो तो क्या उस कर्म की छाल से ज्यादा कीमत मानी जायेगी?"३ मंविज्ञान के अनुसार सामूहिक जीवनदृष्टि में विवेक
सामूहिक जीवन जीने में कर्मविज्ञान के अनुसार आत्मीयता के साथ तटस्थता के मंत्र को ही प्रकारान्तर से व्यक्त करते हुए पण्डित सुखलालजी लिखते हैं-"अब यदि सामूहिक जीवन की विशाल और अखण्ड दृष्टि का विकास किया जाए और उस दृष्टि
1. जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'वैयक्तिक और सामूहिक कर्म' लेख से पृ.२४० है. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'वैयक्तिक और सामूहिक कर्म' लेख से, पृ.२४0 .. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'वैयक्तिक और सामूहिक कर्म' लेख से पृ. २४०
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