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९२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
के अनुसार हर व्यक्ति अपनी जिम्मेवारी की मर्यादा बढ़ावे तो उसके हिताहित दूसरे के हिताहितों से टकराने न पावें और जहाँ वैयक्तिक नुकसान दिखाई देता हो, वहाँ भी सामूहिक जीवन के लाभ की दृष्टि उसे सन्तुष्ट रखे, उसका कर्तव्य क्षेत्र विस्तृत बने और उसके सम्बन्ध अधिक व्यापक बनने पर वह अपने में एक भूमा (व्यापकता और विशालता) को देखे।"१ . सामूहिक चित्तशुद्धि में कर्म की शुद्धि ___ जैन कर्मविज्ञान भावकर्म को ही मुख्य मानता है, और उसका मूल मानता है चित्त में। अगर चित्त में राग-द्वेष और कषाय का तूफान न उठे तो कर्म भी शुद्ध और अबन्धकारक होता है। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखकर पण्डित सुखलालजी ने सामूहिक चित्तशुद्धि को वैयक्तिक चित्तशुद्धि का आदर्श या मापक मानते हुए लिखा है"...चित्तशुद्धि ही शान्ति का एकमात्र मार्ग होने से यह मुक्ति अवश्य है, परन्तु वैयक्तिक चित्तशुद्धि में पूर्ण मुक्ति मान लेने का विचार अधूरा है। सामूहिक चित्त की शुद्धि को बढ़ाते जाना ही वैयक्तिक चित्तशुद्धि का आदर्श होना चाहिए। और यह हो तो (जीवन्मुक्ति या सदेहमुक्ति अथवा भाषकसिद्धि यहीं प्राप्त हो जाती है) किसी दूसरे स्थान में या लोक में मुक्तिधाम मानने की या उसकी कल्पना करने की बिलकुल जरूरत नहीं है। ऐसा धाम तो सामूहिक चित्तशुद्धि में अपनी शुद्धि का हिस्सा मिलाने में है।"२
निष्कर्ष यह है कि जैन कर्मविज्ञान वैयक्तिक कर्म के साथ-साथ समाज और समष्टि के हित के लिए भी आत्मीयतापूर्वक व्यवहार करना बताता है, परन्तु शर्त हैराग-द्वेष, कषाय आदि से बचने की। यही आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ समाज संरचना का मूल मंत्र है। सामाजिक सन्दर्भ में कर्मसिद्धान्त की यही उपयोगिता है।
१. २.
वही, पृ.२३९ वही, पृ.२४०
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