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९० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
निन्दा करते हैं, अथवा उसे दुःख देते हैं, अथवा बाद में वह अपनों को छोड़ देता है, या उनकी निन्दा करता है अथवा उन्हें दुःख देता है।"१ ___ इसलिए कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ तीर्थंकर यह उपदेश देते हैं कि "न तो तू अपने जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान और पूजा-प्रतिष्ठा के लिए या जन्म-मरण से बचने के लिए तथा पूर्वकृत दुष्कर्मों के फलस्वरूप आ पड़े हुए दुःख के निवारण हेतु पृथ्वीकायादि षड्जीवनिकाय के जीवों की उत्कट हिंसादि पापकर्म में पड़ और न दूसरों के लिए पापकर्म में पड़।" “साधक को इन कर्मसमारम्भों को जानना और इनका त्याग करना चाहिए।"२ .
इसलिए उन्होंने एक ओर से प्राणिमात्र (मानवमात्र स्वजन-परिजन आदि सब) के प्रति आत्मीयता का व्यवहार करने का कहा, तो दूसरी ओर यह भी कहा कि उनके साथ
आत्मीयता का व्यवहार करते हुए तीव्र राग-द्वेष, आसक्ति, मूढ़ता, मोहवश पापकर्म न करे, तटस्थ रहे। इस विवेक (संयम) को समझ कर कर्ममुक्ति के लिए उद्यत मानव न तो स्वयं के लिए पापकर्म करे और न दूसरों के लिए करे तथा न दूसरों से करावे।"३
इस प्रकार क्या साधु-जीवन में, क्या गृहस्थ-जीवन में सामूहिक कर्म तो करना ही पड़ता है, किन्तु सामाजिक सन्दर्भ में कर्म करते समय आत्मीयता और तटस्थता का विवेक रखे, कर्म के साथ आ जाने वाले पाप-दोषों और उनके कारणों से दूर रहे। यही जैन कर्मविज्ञान का रहस्य है। सामूहिक जीवन में कर्म-विवेक धर्म बन जाता है
इस सम्बन्ध में पं. सुखलालजी कर्मविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में सामूहिक जीवन के लिए कर्म-विवेक की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं-"पाँव में सूई लग जाने पर कोई उसे निकालकर फैंक दे तो आमतौर पर कोई उसे गलत नहीं कहता। परन्तु सूई फैंकने वाला बाद में सीने के और दूसरे काम के लिए नई सूई ढूँढ़े और उसके न मिलने पर अधीर
१. (क) "जेहिं वा सद्धिं संवसति, ते वा णं एगया णियगा तं पुट्विं परिवयंति/पोसेंति/परिहरति, सो वा ते णियमे पच्छा परिवएज्जा/पोसेज्जा/परिहरेज्जा/"
__ -आचारांग श्रु. १, अ.२, उ. १ सू. १८४, १९३, १९७ २. (क) इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघाय हेउं॥
-आचारांग श्रु.१ अ.१,उ.५,६,७ (ख) एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति।
-आचा.श्रु.१,अ.१, उ.१ ३. (क) तम्हा पावकम्मं णेव कुज्जा, ण कारवे। (ख) णेवन्नेहिं पापकम्मं कुज्जा।"
-आचारांग श्रु.१ अ.२ उ.६
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