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________________ ८६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) इस प्रकार वह मूर्ख दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ, उस धन-नाश, आर्तध्यान आदि से उत्पन्न दुःख से (घोर पापकर्मबन्ध से) मूढ़ बनकर विपर्यास को प्राप्त होता है।'' : इसीलिए आगमों में दया आदि आत्मीयतायुक्त व्यवहार करने से पहले 'ज्ञान' (विवेक) को महत्त्व दिया गया है। आत्मतुल्यता की भावना का विविध पहलुओं से निर्देश जब प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझा जाएगा तो उसकी हिंसा को अपनी हिंसा, उसकी वेदना या पीड़ा को अपनी वेदना या पीड़ा समझा जाएगा। इसी तथ्य को म. महावीर ने मार्मिक ढंग से उजागर किया है आचारांग सूत्र में-"तू वही है, जिसे तू. मारना चाहता है, जिसे तू कठोर रूप से शासित करना चाहता है, वह तू ही है; जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है; जिसे तू निगृहीत करके वश में करना चाहता है, वह तू ही है; जिसको प्रताड़ित एवं भयभीत करना (डराना,धमकाना) चाहता है, वह तू ही इसका आशय यह है कि स्वरूप की दृष्टि से तेरे जैसी ही चेतना, अनुभूति एवं संज्ञा दुसरे प्राणी में भी है। इस प्रकार की आत्माद्वैत की या आत्मतुल्यता की भावना रख कर चल। १. (क) 'सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा।' . ___ -सूत्रकृतांग श्रु.१,अ.१० उ.६ (ख) '....माया मे, पिया मे, भाया मे, भइणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुण्हा मे, सहि-सयणसंगंधसंथुया मे विवित्तुवगरण-परिवट्टण-भोयणच्छायणं मे। इच्चत्थं गढिए लोए वसे पत्ते।" ___-आचारांग श्रु.१ अ. २, उ.१ (ग) ... तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरंति, रायाणो वा से विलुपति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अंगार दाहेण वा से डज्झइ।' ___-वही श्रु. १ अ.२, उ.३ (घ) "इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माइं बाले पकुव्वमाणे, तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ॥" - वही श्रु.१ अ.२,उ.३ २. 'पढमं नाणं तओ दया।' -दशवैकालिक अ.४ गा.90 ३. "तुमं सि नाम तं चेव, जं हंतव्वं ति मन्त्रसि। तुम सि नाम तं चेव, जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि। तुमंसि नाम तं चेव, जं परियावेयव्वं ति मनसि। तुमं सि नाम तं चेव, जं परिघेतव्वं ति मनसि। तुम सि नाम तं चेव, जं उद्दवेयव्वं ति मनसि।" -आचारांग.श्रु.१ अ.५, उ.५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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