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कर्म-अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-२
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नित्यकर्म है। जैसे-सन्ध्यावन्दन आदि। जो किसी अवसर विशेष पर किया जाता है, उसे नैमित्तिक कर्म कहा जाता है। जैसे-श्राद्ध आदि कर्म।' कर्म और कर्मफलरूप पुनर्जन्मादि का संयोग कराने वाला : अपूर्व
यज्ञादि का अनुष्ठान (कम) करने पर तुरंत फल की निष्पत्ति नहीं होती। परन्तु कालान्तर में होती है। इस विषय में प्रश्न यह है कि कर्म के अभाव में कर्मफलोत्पादक कैसे बन सकता है ? मीमांसक इसका समाधान यों करते हैं-अपूर्व द्वारा यह व्यवस्था बन सकती है। प्रत्येक कर्म में अपूर्व (पुण्य-पाप) को उत्पन्न करने की शक्ति होती है। अर्थात्-कर्म से अपूर्व उत्पन्न होता है और अपूर्व से उत्पन्न होता है-फल। कर्म और कर्मफल को जोड़ने वाला अपूर्व ही है। इसीलिए शंकराचार्य अपूर्व को कर्म की सूक्ष्म उत्तरावस्था या फल की पूर्वावस्था मानते हैं। ___ योगदर्शन में कर्म और पुनर्जन्म-'योगदर्शन' व्यासभाष्य में पुनर्जन्म की सिद्धि करते हुए कहा गया है-"नवजात शिशु को भयंकर पदार्थ को देखकर भय और त्रास उत्पन्न होता है, इस जन्म में तो उसके कोई संस्कार अभी तक पड़े ही नहीं, इसलिए पूर्वजन्म के कर्मरूप संस्कारों का मानना आवश्यक है।" इससे पूर्वजन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। पातंजल योगदर्शन में कहा गया है-३ "जीव जो कुछ प्रवृत्ति करता है, उसके • संस्कार चित्त पर पड़ते हैं। इन संस्कारों को कर्म-संस्कार, कर्माशय या
केवल 'कर्म' कहा जाता है। संस्कारों में संयम (धारणा, ध्यान और समाधि) करने से पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।" यों पूर्व जन्म सिद्ध होने से पुनर्जन्म तो स्वतः सिद्ध हो जाता है। योगदर्शन का अभिमत है कि जो कर्म अदृष्टजन्य-वेदनीय होते हैं, वे अपना फल इस जन्म में नहीं देते, उनका
फल आगामी जन्म या जन्मों में मिलता है। नारकों और देवों के कर्म . अदृष्टजन्य वेदनीय होते हैं। इस पर से भी पुनर्जन्म फलित होता है।
जैनदर्शन में कर्म और पूर्वजन्म-पुनर्जन्म-जैनदर्शन आत्मा को परिणामी. नित्य और कथञ्चित् मूर्त कहकर उसे शुभाशुभ कर्मों का कर्ता-भोक्ता १. (क) मीमांसादर्शन (जैमिनीसूत्र)
(ख) तंत्रवार्तिक पृ. ३९५
(ग) शांकरभाष्य ३/२/४0 २. योगदर्शन व्यासभाष्य २/९, ४/१० ३. (क) पांतजल योग दर्शन २/१२
(ख) वही, ३/१८ ४. योगदर्शन व्यासभाष्य २/१२
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