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________________ ७२. कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) मानता है। उसका मन्तव्य है कि अनादिकाल से आत्मा का प्रवाहरूप से कर्म के साथ संयोग होने से, वह अशुद्ध है । इस अशुद्ध दशा के कारण ही आत्मा विभिन्न शुभाशुभ गतियों और योनियों में भटकता रहता है। आत्मा (जीव) जो भी कर्म करता है, उसका फल उसे ही इस जन्म में या अगले जन्म या जन्मों में भोगना पड़ता है; क्योंकि बंधे हुए कर्म बिना फल दिये नष्ट नहीं होते। वे आत्मा का तब तक अनुसरण करते रहते हैं, जब तक अपना फलभोग न करा दें। महाभारत में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - 'महाभारत' में बताया गया है कि "किसी भी आत्मा के द्वारा किया हुआ पूर्वकृत कर्म निष्फल नहीं जाता, न ही वह उसी जन्म में समाप्त हो जाता है, किन्तु जिस प्रकार हजारों गायों में से बछड़ा अपनी मां को जान लेता है, उसके पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार पूर्वकृत कर्म भी अपने कर्त्ता का अनुगमन करके आगामी जन्म में उसके पास पहुँच जाता है । "२ और उस वर्तमान जन्म में किये हुए कर्म अपना फल देने के रूप में आगामी जन्म (पुनर्जन्म) में उसी आत्मा का अनुगमन करते हैं। इस प्रकार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का सिलसिला तब तक चलता है, जब तक वह आत्मा (जीव ) कर्मों का सर्वथा क्षय न कर डाले । मनुस्मृति से भी पुनर्जन्म की अस्तित्व - सिद्धि - मनुस्मृति में बताया गया है। कि नव- (सद्यः) जात शिशु में जो भय, हर्ष, शोक, माता के स्तनपान, रुदन आदि की क्रियाएँ होती हैं, उनका इस जन्म में तो उसने बिलकुल ही अनुभव नहीं किया। अतः मानना होगा कि ये सब क्रियाएँ उस शिशु के पूर्वजन्मकृत अभ्यास या अनुभव से ही सम्भव है। अतः उक्त पूर्वजन्मकृत अभ्यास की स्मृति से पुनर्जन्म की सिद्धि होती है । पुनर्जन्मवाद - खण्डन, एक जन्मवाद- मण्डन : दो वर्ग पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को न मानने वाले द । वर्ग मुख्य हैं - (१) एक हैं - चार्वाक आदि नास्तिक, जो आत्मा को (स्वतंत्र तत्त्व) ही नहीं मानते। वे १. (क) 'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' । (ख) सो सव्वणाण-दरिसी कम्मरएण णिएण वच्छण्णो । संसार- समावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं ॥ यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विंदति मातरम् । तथा पूर्वकृतं कर्म कर्त्तारमनुगच्छति ॥ ३. (क) मनुस्मृति १२/४० (ख) न्यायसूत्र ३/१/१८, ३/१/२१ २. Jain Education International - समयसार गा. १६० - महाभारत, शान्तिपर्व १८१/१६ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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