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७० कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) पूर्वगृहीत शरीरों को छोड़ता रहता है, इसी का नाम संसरण (संसार) है। मृत्यु होने पर सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं होता, किन्तु पुरुष (आत्मा) सूक्ष्म शरीर के सहारे से पुराने स्थूल शरीर को छोड़कर नये स्थूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। संसार की अनेक योनियों में पुरुष (आत्मा) का परिभ्रमण करने का कारण सूक्ष्म शरीर ही है। जब तक उसका सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हो जाता, तब तक उसका संसार में आवागमन होता रहता है। पूर्वजन्म के अनुभव और कर्मों के संस्कार इस लिंग (सूक्ष्म) शरीर में निहित रहते हैं।
चूंकि सांख्यदर्शन पुरुष (आत्मा) को कूटस्थ-नित्य मानता है, इसलिए उसका स्थान परिवर्तन (विभिन्न योनियों में गमनागमन) या पुनर्जन्म शक्य नहीं है, इसलिए उसने इस लिंग शरीर की कल्पना की। कर्मफलभोग का एकमात्र साधन यही लिंग शरीर है। पुनर्जन्म भी लिंग शरीर का ही होता है, आत्मा (पुरुष) का नहीं।
लिंग शरीर के निमित्त से पुरुष का प्रकृति के साथ सम्पर्क होने पर जन्म-मरण का चक्र प्रारम्भ हो जाता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार हैजैसे रंगमंच पर एक ही व्यक्ति कभी अजातशत्रु, कभी परशुराम और कभी राम के रूप में दर्शकों को दिखाई देता है, उसी प्रकार लिंग शरीर विभिन्न शरीर ग्रहण करके मनुष्य, देव, तिर्यञ्च (पशु-पक्षी या वनस्पति) आदि नाना रूपों में परिलक्षित होता है।
इस प्रकार सांख्यदर्शन में भी पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है।
मीमांसादर्शन में कर्म और पुनर्जन्म-मीमांसादर्शन आत्मा को नित्य मानता है, इसलिए वह पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को मानता है। मीमांसादर्शन में चार प्रकार के वेद-प्रतिपाद्य कर्म बताये गए हैं। (१) काम्य कर्म, (२) निषिद्ध कर्म, (३) नित्यकर्म और (४) नैमित्तिक कर्म। कामनाविशेष की सिद्धि के लिये किया गया कर्म काम्यकर्म है। निषिद्ध कर्म अनर्थोत्पादक होने से निषिद्ध है। जो कर्म फलाकांक्षा के बिना किया जाता है, वह
१. भारतीय दर्शन की रूपरेखा पृ.२९१ २. (क) वही, पृ. २९१ (ख) "पुरुषार्थ-हेतुकमिदं निमित्त-नैमित्तिक-प्रसंगेन ।
प्रकृतेर्विभुत्वयोगान् नटवत् व्यवतिष्ठते लिंगम् ॥"
-सांख्यकारिका ४२
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