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________________ कर्म - अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - २ ६५ (गति- अगति) करते हुए प्रत्यक्ष देखा था। उन्हें यह ज्ञान हो गया था कि `अमुक प्राणी उसके अपने कर्मानुसार किस योनि में जन्मेगा ? इस प्रकार का ज्ञान उनके लिए स्व-संवेद्य अनुभव था। "" थेरीगाथा में यह बताया गया है कि “तथागत बुद्ध के कई शिष्यशिष्याओं को अपने-अपने पूर्वजन्मों और पुनर्जन्मों का ज्ञान था । " ऋषिदासी भिक्षुणी ने थेरीगाथा में अपने पूर्वजन्मों और पुनर्जन्मों का मार्मिक वर्णन किया है।' 'दीघ निकाय' में तथागत बुद्ध अपने शिष्यों से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का रहस्योद्घाटन करते हुए कहते हैं- "भिक्षुओ ! इस प्रकार दीर्घकाल से मेरा और तुम्हारा यह आवागमन-संसरण चार आर्य सत्यों के प्रतिवेद्य न होने से हो रहा है। बौद्धदर्शन के अनुसार इसका फलितार्थ यह है कि पुनर्जन्म का मूल कारण अविद्या (जैनदृष्टि से भावकम) है। अविद्या के कारण संस्कार (मानसिक वासना), संस्कार से विज्ञान उत्पन्न होता है। विज्ञान चित्त की वह भावधारा है, जो पूर्वजन्म में कृंत कुशल-अकुशल 'कर्मों के कारण होती है, जिसके कारण मनुष्य को आँख, कान आदि से सम्बन्धित अनुभूति होती है। इस प्रकार बौद्ध धर्म-दर्शन में भी कर्म और पुनर्जन्म का अटूट सम्बन्ध बताया गया है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म नैयायिक और वैशेषिक दोनों आत्मा को नित्य मानते हैं । "मिथ्याज्ञान से राग (इच्छा) द्वेष आदि दोष उत्पन्न होते हैं। राग और द्वेष आदि से धर्म और अधर्म (पुण्य और पाप कर्म) की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति सुख-दुःख को उत्पन्न करती है। फिर ये सुख-दुःख जीव में मिथ्याज्ञानवश राग-द्वेषादि उत्पन्न करते हैं ।" "न्यायसूत्र' में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि "मिथ्याज्ञान से रागद्वेषादि, रागद्वेषादि दोषों से प्रवृत्ति (धर्माधर्म पुण्य पाप की ) तथा प्रवृत्ति से जन्म और जन्म से दुःख होता है।" जब तक धर्माधर्म प्रवृत्तिजन्य संस्कार बने रहेंगे, तब तक १. देखिये - मज्झिमनिकाय का तेविज्जवच्छगोत्तसुत्त, बोधिराजकुमारसुत्त और अंगुत्तरनिकाय का वेरंजक ब्राह्मणसुत्त । थेरीगाथा ४००-४४७ दीघनिकाय २/३ बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ. ३९५ ५. (क) इच्छा द्वेष पूर्विका धर्माधर्मयोः प्रवृत्तिः ।' (ख) "दुःख - जन्म - प्रवृत्ति - दोष - मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये Jain Education International For Personal & Private Use Only - वैशेषिकसूत्र ६/२/१४ - न्यायसूत्र १/१/२ www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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