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कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
शुभाशुभ कर्मफल भोगने के लिए जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा, जीव नये-नये शरीर ग्रहण करता रहेगा । ' शरीरग्रहण करने में प्रतिकूल वेदनीय होने के कारण दुःख का होना अनिवार्य है। इस प्रकार मिथ्याज्ञान से दुःखपर्यन्त उत्तरोत्तर निरन्तर अनुवर्त्तन होता रहता है। 'षड्दर्शन - रहस्य' में बताया है कि "घड़ी की तरह सतत् इनका अनुवर्तन होता रहता है। प्रवृत्ति ही पुनः आवृत्ति का कारण होती है । " २
पूर्वजन्म में अनुभूत विषयों की स्मृति से पुनर्जन्म सिद्धि
पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए दोनों दर्शनों का मुख्य तर्क इस प्रकार हैनवजात शिशु के मुख पर हास्य देखकर उसको हुए हर्ष का अनुभव होता है । इष्ट विषय की प्राप्ति होने पर जो सुख उत्पन्न होता है, वह हर्ष कहलाता है। नवजात शिशु किसी भी विषय को इष्ट तभी मानता है, जब उसे ऐसा स्मरण होता है कि तज्जातीय विषय से पहले उसे सुखानुभव हुआ हो, उस अनुभव के संस्कार पड़े हों, तथा वे संस्कार वर्तमान में उक्त विषय के उपस्थित होते ही जागृत हुए हों। नवजात शिशु को इस जन्म में तज्जातीय विषय का न तो पहले कभी अनुभव हुआ हैं, न ही वैसे संस्कार पड़े हैं। फिर भी उक्त विषय से सुखानुभव होने की स्मृति उसे होती है।.. और वह उक्त विषय को वर्तमान में इष्ट एवं सुखकर मानता है। इसलिए यह मानना ही पड़ेगा कि नवजात शिशु को तज्जातीय विषय से सुखानुभव हुआ तथा उस अनुभव के जो संस्कार पूर्वजन्म में पड़े, वे ही इस जन्म में शिशु की आत्मा में हैं। इस प्रकार पूर्वजन्म सिद्ध हो जाता है । पूवर्जन्म सिद्ध होते ही मरणोत्तर पुनर्जन्म सिद्ध होता है।
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'सिद्धिविनिश्चय' की टीका में इसी प्रकार पुनर्जन्म की सिद्धि की गई है - जिस प्रकार एक युवक का शरीर शिशु की उत्तरवर्ती अवस्था है, इसी प्रकार नवजात शिशु का शरीर भी पूर्वजन्म के पश्चात् होने वाली अवस्था है। यदि ऐसा न माना जाएगा तो पूर्वजन्म में अनुभूत विषय का स्मरण और तदनुसार प्रवृत्तियाँ नवजात शिशु में कदापि हीं हो सकती हैं, किन्तु होती हैं, इसलिए पुनर्जन्म को और उससे सम्बद्ध पूर्वजन्म को माने बिना कोई चारा नहीं।
१. भारतीय दर्शन की रूपरेखा पृ. २६२
२. षड्दर्शन - रहस्य पृ. १३५
३. (क) न्याय-वैशेषिक दर्शन, (ख) सिद्धिविनिश्चय टीका ४/१४ पृ. २८८
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