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________________ ६४ . कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) सम्बोधित करते हुए कहा है-"हे अर्जुन । मेरे और तुम्हारे बहुत-से जन्म व्यतीत हो चुके हैं, परन्तु हे परंतप ! मैं उन सब (जन्मों) को जानता हूँ, तुम नहीं जानते।" एक जगह गीता में कहा गया है-"जो ज्ञानवान् होता है, वही बहुत-से जन्मों के अन्त में (अन्तिम जन्म में) मुझे प्राप्त करता है।" "हे अर्जुन ! जिस काल में शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन वापस न आने वाली गति को, तथा वापस आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल (माग) को मैं कहूँगा।"३ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को सिद्ध करते हुए गीता में कहा है-"वे उस विशाल स्वर्गलोक का उपभोग कर पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में प्रवेश पाते हैं। इसी प्रकार तीन वेदों में कथित धर्म (सकाम कम) की शरण में आए हुए और कामभोगों की कामना करने वाले पुरुष इसी प्रकार बार-बार विभिन्न लोकों (गतियों) में गमनागमन करते रहते बौद्ध-धर्म-दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म' ___अनात्मवादी दर्शन होते हुए भी बौद्ध दर्शन ने कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त का समर्थन किया है। पालित्रिपिटक में बताया गया है-"कर्म से विपाक (कर्मफल) प्राप्त होता है, फिर विपाक (फलभोग) से कर्म समुद्भूत होते हैं, कर्मों से पुनर्जन्म होता है, इस प्रकार यह संसार (लोक) चलता (प्रवृत्त होता) रहता है।"५ मज्झिम-निकाय में कहा गया है-कुशल (शुभ) कर्म सुगति का और अकुशल (अशुभ) कर्म दुर्गति का कारण होता है।" ६ बोधि प्राप्त करने के पश्चात् तथागत बुद्ध को अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हुआ था। एक बार उनके पैर में कांटा चुभ जाने पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा-"भिक्षुओ । इस जन्म से इकानवे जन्म-पूर्व मेरी शक्ति (शस्त्र-विशेष) से एक पुरुष की हत्या हो गई थी। उसी कर्म के कारण मेरा पैर कांटे से बिंध गया है। इस प्रकार बोधि के पश्चात् उन्होंने अपने-अपने कर्म से प्रेरित प्राणियों को विविध योनियों में गमनागमन १. गीता, अ. ४ श्लोक ५ २. वही, अ.७ श्लोक १९ ३. वही, अ. ८ श्लोक २३ ४. वही, अ. ९ श्लोक २१ ५. कम्मा विपाका वत्तन्ति, विपाको कम्मसम्भवो । कम्मा पुनब्भवो होति, एवं लोको पवत्ततीति । - 'बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन' पृ. ४७८ ६. मज्झिम-निकाय ३/४/५ ७. इत एकनवते कल्पे, शक्त्या मे पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ।" -षड्दर्शन समुच्चय टीका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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