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________________ 00000 "धर्म और कर्म" अध्यात्म जगत के दो अद्भुत शब्द हैं, जिन पर चैतन्य जगत की समस्त क्रिया / प्रतिक्रिया आधारित है। सामान्यतः धर्म मनुष्य के मोक्ष / मुक्ति का प्रतीक है और कर्म बंधन का । बन्धन और मुक्ति का ही यह समस्त खेल है। प्राणी / कर्मबद्ध आत्मा, प्रवृत्ति करता है, कर्म में प्रवृत्त होता है, सुख-दुःख का अनुभव करता है, कर्म से मुक्त होने के लिए फिर धर्म का आचरण करता है, मुक्ति की ओर कदम बढ़ाता है। प्रकाशकीय बोल - 00000 = 0000= "कर्मवाद" का विषय बहुत गहन है, तथापि कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए जानना भी परम आवश्यक है। कर्म सिद्धान्त को समझे बिना धर्म hat या मुक्ति मार्ग को नहीं समझा जा सकता। हमें परम प्रसन्नता है कि जैन जगत के महान मनीषी, चिन्तक/लेखक उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज ने "कर्मविज्ञान" नाम से यह विशाल ग्रन्थ लिखकर अध्यात्मवादी जनता के लिए महान उपकार किया है। यह विराट् ग्रन्थ लगभग १२०० पृष्ठ का होने से हमने दो भागों में विभक्त किया है। प्रथम भाग में कर्मवाद पर दार्शनिक एवं वैज्ञानिक चर्चा है तथा दूसरे भाग में कर्म प्रकृति, कर्म के भेदोप- भेद आदि पर गंभीर विचारणा क गई है। प्रथम भाग का प्रकाशन पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. की ८१ वी. जन्म जयंती के प्रसंग पर किया जा रहा है। इसके प्रकाशन में समाज के युवानेता, सुश्रावक दानवीर श्री जे. डी. जैन ने उदारता पूर्व अर्थ सहयोग प्रदान कर हमें उत्साहित किया है, हम उनके आभारी हैं साथ ही श्रीमान् श्रीचन्द जी सुराना "सरस" ने बड़ी तत्परता के साथ इस सुन्दर मुद्रण व साज-सज्जा युक्त प्रकाशन कर समय पर प्रस्तुत किया हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं। आशा है, पाठक इस ग्रन्थ के स्वाध्याय से अधिकाधिक लाभान्वित होंगे। Jain Education International © चुन्नीलाल धर्मावत कोषाध्यक्ष श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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