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प्रस्तावना
दो अक्षरों का कर्म शब्द साधारण होते हुए भी अपने अन्दर बहुत ही असाधारण अर्थ समेटे हुए है । इस शब्द का प्रयोग सामान्य जन तो करते ही हैं, विशिष्ट विद्वान और दार्शनिक भी करते हैं, यहाँ तक कि धर्मप्रचारक, धर्म-सुधारक, धर्मगुरु और तीर्थकरों आदि सभी ने इस शब्द का प्रयोग किया है और अपनी-अपनी भाषा शैली में इसके विभिन्न गूढ़तम रहस्यों को जन-साधारण के समक्ष उद्घाटित भी किया है।
सामान्य बोलचाल की भाषा में मनुष्य की सभी प्रवृत्तियों - क्रियाओं : को कर्म कहा जा सकता है, जैसे- हँसना, बोलना, चलना आदि क्रियाएँ । किन्तु ज्यों-ज्यों गहरे उतरेंगे, कर्म के प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत होता जायेगा । कर्म के विभिन्न अर्थ
विद्वानों ने विभिन्न अपेक्षाओं से कर्म के भिन्न-भिन्न अर्थ बताये हैं । व्याकरणाचार्यों ने कहा है - जिस पर कर्त्ता की क्रिया का फल पड़ता है, अथवा जो कर्त्ता को प्राप्त होता है वह कर्म है।
सामान्य भाषा में, प्राणी की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहा जाता है, इसका अभिप्राय यह है कि जीव संपृक्त शरीर द्वारा जितनी भी क्रियाएं होती हैं, वे सभी कर्म हैं।
लेकिन इसमें एक अपवाद है कि शरीर की जो सहज क्रियाएँ (मोटोरी एक्टिविटीज़ - Mc: Cry activities) जैसे- श्वास लेना और छोड़ना, शरीर में रक्त परिभ्रमण, फेफड़ों का स्पन्दन, हृदय की धड़कन, भोजन का पचन- पाचन- ये आर ऐसी सभी क्रियाएँ कर्म में परिगणित नहीं होती।
धर्म, दर्शन साधना के क्षेत्र में अपेक्षा, भाषा-शैली और उद्देश्य की भिन्नता के कारण कई शब्द को विभिन्न अभिप्रायों और रूपों में व्यक्त किया गया है।
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