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________________ कर्म - अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - १ ५७ इसके अतिरिक्त सुख-विपाकसूत्र और दुःखविपाक सूत्र में तो पूर्वकृत शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त हुए सुखद-दुःखद जन्म का तथा उसके पश्चात् उस जन्म में अर्जित शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप अगले जन्म में स्वर्ग-नरक प्राप्ति रूप फल (विपाक) का निरूपण सुबाहुकुमार आदि की विशद कथाओं द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त कर दिया है। ' इसके अतिरिक्त समरादित्य केवली की कथा भी पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-सम्बन्धी अनेक घटनाओं से परिपूर्ण है। समरादित्य के साथ-साथ द्वेषवश उनका विरोधी लगातार कई जन्मों तक विभिन्न योनियों में जन्म लेकर वैर वसूल करता है। उधर समरादित्य भी पूर्वकृत शुभकर्मवश सात्त्विक एवं पवित्रकुलों में जन्म लेकर, साधनाशील बन जाने पर भी अशुभकर्मवश बारंबार वैरी के द्वारा कष्ट पाते हैं। वे प्रत्येक भव में कुछ मन्द कषाय एवं मन्द राग-द्वेष से तथा कुछ समभाव से कष्ट सहकर पूर्वकृत कर्मों का फल भोगकर धीरे- धीरे कर्म क्षय करते जाते हैं। कई जन्मों तक यह सिलसिला चलता है। इस प्रकार वे चार घाति कर्मों का क्षय करके वीतराग केवली बन जाते हैं - और अन्त में, शेष रहे शरीर से सम्बद्ध चार अघाति-कर्मों को भी क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाते हैं। इसी प्रकार अनेक जैनाचार्यों द्वारा रचित जैन कथाओं में प्रायः प्रत्यक्षज्ञानी (अवधिज्ञानी या मनःपर्यायज्ञानी) से अपने द्वारा कृतकर्मों के फलस्वरूप दुःख पाने के कारणों की पृच्छा करने पर वे उसके पूर्वजन्म की घटना को प्रस्तुत करते हैं। सती अंजना, चन्दनबाला, द्रौपदी, सुभद्रा, कुन्ती, दमयन्ती, प्रभावती, कलावती आदि सतियों को जो भयंकर कष्ट सहने पड़े, उनके पीछे भी पूर्वजन्मकृत कर्मों का हाथ है, यह प्रत्येक सती की जीवन गाथा से स्पष्ट प्रतीत होता है। उन प्रत्यक्ष सम्यग्ज्ञानियों में किसी के प्रति पक्षपात, रागद्वेष, ईर्ष्यालोभ आदि काषायिक विकार नहीं थे, इसलिए उनके लिए पूर्वजन्मपुनर्जन्म का अपलाप करने या असत्य कहने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था । १. इसके विशेष विवरण के लिए देखिये - सुखविपाकसूत्र एवं दुःखविपाकसूत्र । २. विशेष विवरण के लिये देखिये 'समराइच्चकहा' (समरादित्यकथा) (आचार्य हरिभद्र सूर) ३. विशेष विवरण के लिए देखिये, - सोलह सती, जैन कथाएँ, जैनकथामाला आदि पुस्तकें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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