SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) छह जन्मों की ये लगातार घटनाएँ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की सिद्धि के अतिरिक्त स्व-स्वपूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप पूर्वजन्म और पुनर्जन्म में भी तदनुसार फल प्राप्ति के सिद्धान्त का भी समर्थन करती हैं । ' इससे आगे इषुकारीय अध्ययन भी पूर्वजन्म की सिद्धि के लिए पर्याप्त है। इस अध्ययन में भृगु-पुरोहित के दोनों पुत्रों को अपने पूर्वजन्म का तथा उस जन्म में आचरित तप-संयम का स्मरण करके विरक्त होने का स्पष्ट वर्णन है। ' संजयीय अध्ययन में तो स्पष्टतः पुनर्जन्म और शुभाशुभ कर्म का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध रूप गठबन्धन बताते हुए कहा गया है- "जो सुखंद या दुःखद कर्म जिस व्यक्ति ने किये हैं, वह अपने उन कर्मों से युक्त होकर परभव में जाता है, अर्थात् - अपने कृतकर्मानुसार पुनर्जन्म पाता है।" ३ इसके पश्चात् उन्नीसवाँ मृगापुत्रीय अध्ययन भी पूर्वजन्म के अस्तित्व को स्पष्टतः सिद्ध करता है। इसमें मृगापुत्र अपने पूर्वजन्म का तथा देवलोक भव से पूर्वजन्म में आचरित पंचमहाव्रतरूप श्रमण धर्म का स्मरण करता है, साथ ही नरक और तिर्यञ्चगति में प्राप्त हुई भयंकर वेदनाओं और यातनाओं को सहन करने का भी वर्णन करता है। * १. मुनि - तीसे य जाईइ उ पावियाए; बुच्छामु सोवाग-निसेवणेसु । सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा, इह तु कम्माई पुरेकडाई ॥" २. पियपुत्तगा दोन्नि वि माहणस्स, सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स । सरित्तु पोराणिय तत्य जाई, तहा सुचिण्णं तव संजमं च ॥ ... तम्हा गिहंसि न रई लभाओ, आमंतयामो चरिस्सामु मोणं ॥ ३. तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं । कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छइ उ परं भवं ॥ ४. देवलोग - चुओ संतो, माणुस्सं भवमागओ । सन्निनाणे समुप्पन्ने जाई सरइ पुराणयं ॥८॥ जाइसरणे समुपन्ने मियापुत्ते महिड्डिए । करइ पोराणियं जाई, सामण्णं च पुरा कयं ॥ ९॥ सुयाणि मे पंच- महव्वयाणि, नरएस दुक्खं च तिरिक्ख जोणिसु ॥ ११ ॥ जरामरणकंतारे चाउरते भयागरे, म सोढाणि भीमाणि जम्माणि मरणाणि य ॥ ४७ ॥ सव्वभवेसु असाया वेयणा वेइया मए । निमेसंतरमित्तं पि जं साया नत्थि वेयणा ॥ ७४ ॥ Jain Education International - उत्तरा. अ. १३ गा. १९ - उत्तरा. अ. १४. गा. ५-७ -उत्तराध्ययन अ. १८ गा. १७ For Personal & Private Use Only - उत्तरा. अ. १९ www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy