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________________ ५२ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) बदलती, केवल शरीर और उससे सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों का संयोग कर्मानुसार बदलता है। आत्मा का कदापि विनाश नहीं होता, उसकी पर्यायों में परिवर्तन होता है। पूर्व-पर्याय में जो आत्मा थी, वही उत्तरपर्याय में भी रहती है। मृत्यु का अर्थ स्थूल-शरीर का विनष्ट होना है, आत्मा का नष्ट होना नहीं। जैसा कि 'पंचास्तिकाय' में बताया गया हैशरीरधारी मनुष्य रूप से नष्ट हो कर 'देव' होता है अथवा नारक आदि अन्य कोई होता है, परन्तु उभयत्र उसका जीवभाव (आत्मत्व) नष्ट नहीं होता, और न ही वह (आत्मा) अन्यरूप में उत्पन्न होता है।' अल्पज्ञों को जन्म से पूर्व एवं मृत्यु के बाद की अवस्था का पता नहीं बहुधा हम देखते हैं कि जीव दो अवस्थाओं से गुजरता है। वह जन्म लेता है, यह प्रथम अवस्था है और एक दिन मर जाता है, यह द्वितीय अवस्था है। जन्म और मरण की दोनों अवस्थाएँ परोक्ष नहीं हैं, हमारे सामने प्रत्यक्ष हैं। प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ, बुद्धिमान् और विचारशील मानव हजारों-लाखों वर्षों से यह चिन्तन करता आ रहा है कि जन्म से पूर्व वह क्या था ? और मृत्यु के पश्चात वह क्या बनेगा ? वैदिक काल के ऋषियों में प्रारम्भिक युगों (Primitive period) में इसकी जिज्ञासा तीव्र रही है किर “यह मैं कौन हूँ ? अथवा कैसा हूँ ? मैं जान नहीं पाता।" आत्मा के सम्बन्ध में ही नहीं, विश्व (समस्त चराचर जगत्) के विषय में भी 'ऋग्वेद' के ऋषि की शंका थी-३ "विश्व का यह मूल तत्त्व तब. असत् नहीं था, या सत् नहीं था, कौन जाने !” “जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात्"-मैं कौन था, क्या बनूंगा ? कहाँ जाऊँगा? इन प्रश्नों को इसी सन्दर्भ में समाहित करने का प्रयत्न किया गया। इन प्रश्नों का समाधान उन महापुरुषों ने किया, जो वीतराग, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी एवं प्रत्यक्षज्ञानी थे। जिन्होंने स्वयं, अनुभव और साक्षात्कार कर लिया था-जीवन और मृत्यु का। आचारांग सूत्र में इसी सन्दर्भ में इस युग के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर के उद्गार हैं १. मणुस्सत्तेण णट्ठो देही, देवो हवेदि इदरो वा । उभयत्त जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो । २. न वा जानामि यदिव इदमस्मि' । ३. नाऽसदासीत नो सदासीत् तदानीम् । ४. कोऽहं कथमिदं जातं, को वै कर्ताऽस्य विद्यते ? उपादानं किमस्तीह ? विचारः सोऽयमीदृशः ।। -पंचास्तिकाय गा-१७ - ऋग्वेद १/१६४/३७ -ऋग्वेद १०/१२९ - शंकराचार्य प्रश्नोत्तरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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