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________________ कर्म-अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-१ ५१ ऐसी परिस्थति को देखकर वर्तमान युग के नास्तिक अथवा कर्म सिद्धान्त के रहस्य से अनभिज्ञ कई व्यक्ति यह कह बैठते हैं-"कर्मविज्ञान में बड़ा अन्धेर है। अन्यथा धर्मिष्ठ दुःखी और पापिष्ठ सुखी क्यों होता ?" ___ इसके समाधान के लिए कर्मविज्ञान के मर्मज्ञ कहते हैं-किसी भी प्राणी की जीवन-यात्रा केवल इसी जन्म तक सीमित नहीं है। उसकी जीवन यात्रा आगे भी, कर्ममुक्त होने से पहले-कई जन्मों तक चल सकती है। इसी प्रकार इसकी जीवनयात्रा इस जन्म से पूर्व भी कई जन्मों से चली आ रही है। यही जन्म उसकी यात्रा का अन्तिम पड़ाव नहीं है। इसलिए सुकर्मों या दुष्कर्मों का फल तो अवश्यमेव मिलता है, इस जन्म में नहीं तो, अगले जन्मों में। कतिपय कृतकर्मों का फल इस जन्म में मिलता है, और कई कर्मों का फल बाद के जन्म या जन्मों में प्राप्त होता है। जिन कर्मों का फल इस जन्म में नहीं मिलता, उनके फल भोग के लिए कर्म-संयुक्त प्राणी कर्मवशात् पूर्ववर्ती स्थूल शरीर को छोड़कर उत्तरवर्ती नया शरीर धारण करता है। 'भगवद्गीता' में इस तथ्य को स्पष्टतया अभिव्यक्त किया है"जैसे वस्त्र फट जाने या जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर देहधारी जीव उनका त्याग करके नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार शरीर के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर व्यक्ति उसे छोड़कर नये-नये शरीर धारण करता है। आत्मा के द्वारा पूर्ववर्ती शरीर को छोड़कर उत्तरवर्ती नूतन शरीर धारण करनापूर्वजन्म कहलाता है, और इस जन्म के शरीर को आयुष्य पूर्ण होने पर छोड़कर कर्मानुसार अगले जन्म का नया शरीर धारण करना पुनर्जन्म कहलाता है। पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म को भारतीय दार्शनिकों ने पुनर्भवपूर्वभव जन्मान्तर, प्रेत्यभाव, परलोक, पर्याय-परिवर्तन, तथा भवान्तर भी कहा है। पूर्वजन्म या पुनर्जन्म के समय शरीर नष्ट होता है, आत्मा नहीं .. पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के साथ-साथ यह सिद्धान्त अवश्य ध्यान में रखना है कि पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के समय उक्त प्राणी की आत्मा नहीं १. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय, जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ - भगवद्गीता २/२२ .२ (क) प्रेत्यभावः परलोकः। - अष्टसहस्री पृ. ८८ । (ख) मृत्वा पुनर्भवनं प्रेत्यभावः । - वही पृ. १६५ (ग) प्रेत्यभावो जन्मान्तरलक्षणः । - वही पृ. १८१ ? (घ) प्रेत्याऽमुत्र-भवान्तरे । अमरकोष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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