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कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप ६१९
समन्वयात्मक रूप ही कर्म का अध्यात्मदृष्टि से परिष्कृत स्वरूप है। अर्थात्-आत्मा के प्रदेशों का सकम्प होना भावकर्म है, और इस कम्पन के कारण पुद्गलों की विशिष्ट अवस्था का उत्पन्न होना द्रव्यकर्म है।' जैनकर्मविज्ञान का यह सर्वांगीण, परिष्कृत स्वरूप : क्यों और कैसे ?
इस प्रकार कर्म के चारों लक्षण द्रव्यकर्म और भावकर्म में, कर्म के संस्काररूप और पुद्गलरूप में, कर्म के मूर्त, परतंत्रीकारक और प्रक्रियात्मक रूप में भी घटित होते हैं। इसके अतिरिक्त यह सर्वांगीण, परिष्कृत स्वरूप कर्म के घाती-अघाती रूप, सकाम-निष्काम रूप, तथा कर्म-विकर्मअकर्मरूप अथवा शुभ-अशुभ-शुद्धरूप एवं कर्म के क्रियमाण-संचितप्रारब्ध-रूप को भी अपने में समाये हुए हैं। कर्म के सभी अंगों, और रूपों को यह परिष्कृत स्वरूप स्पर्श करता है। इसी परिष्कृत स्वरूप के निकष पर विभिन्न दर्शनों और धर्मों में परिभाषित एवं व्याख्यायित तथा मनोविज्ञान, समाजविज्ञान, शरीरविज्ञान, योगविज्ञान, आदि की दृष्टि से विवेचित कर्म के स्वरूप को कसकर पाठक जैन कर्मविज्ञान को पूर्णतया हृदयंगम कर सकते हैं।
१. पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु।'- गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. ६
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