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________________ ६०० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट स्वरूप (३) डॉक्टर अगर रजोगुणी हुआ तो उसकी वृत्ति, प्रवृत्ति और वाणी इस प्रकार की होगी- "मैं रोग मिटाऊँगा, मगर मेरी विजिट फीस दस रुपये देने पड़ेंगे।" परन्तु डॉक्टर यदि तमोगुणी है तो वह यही कहेगा-“पहले मेरी विजिट फीस दस रुपये रख दो, बाद में मैं रोगी को देखने आऊँगा।" प्रस्तुत तीनों प्रकार के डॉक्टरों को विजिट फीस तो मिलेगी ही, परन्तु तीनों की क्रियमाण कर्म करने की पद्धति एवं वृत्ति तथा वाणी में अन्तर है। बीमार पुत्र के पिता के आन्तरिक भाव में भी तीनों प्रकार के डॉक्टरों को फीस देते समय भी तीन प्रकार के मनोभाव होंगे।' क्रियमाण कर्म करते समय सावधान रहो जो क्रियमाण कर्म जितने और जिस वृत्ति-वाणी पूर्वक किये जाते हैं, उतना और उसी किस्म के प्रारब्ध का निर्माण होता है। और उतना ही प्रारब्ध फल मिलता है, न्यूनाधिक नहीं। जन्मग्रहण करते समय जितने संचित कर्म पककर फल देने हेतु प्रारब्धरूप में निर्मित हुए हों, उतने ही प्रारब्धकर्म का फलभोग कराने हेतु तदनुसार शरीर तथा माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि भी वैसे प्रारब्ध को भुगवाने के लिए प्राप्त होते हैं। सभी सुख-सुविधाएँ या सुख-दुःख के निमित्त भी प्रारब्धवशात् मनुष्य को अपने जीवन काल के दौरान मिलते जाते हैं। अतः मनुष्य को अपने क्रियमाण कर्म करते समय पूरा सावधान रहना चाहिए, क्योंकि जैसे क्रियमाण कर्म किये होंगे, वे संचित होकर या संचित न होकर जब पकेंगे, तो जैसा और जितना प्रारब्ध-निर्माण हुआ होगा, उससे जरा भी कम या अधिक उसे नहीं मिलेगा।२ जैनदृष्टि से प्रारब्ध भी बदला जा सकता है . शुभकर्मों का फल सदैव सुखरूप और अशुभकर्मों का दुःखरूप ही होता है, इसमें शंका को कोई अवकाश नहीं है। जैसा क्रियमाण कर्म होता है, वैसा ही संचित होता है, और जैसा संचित होता है, वैसा ही प्रारब्ध होता है। परन्तु जैनकर्मविज्ञान के अनुसार संचित से प्रारब्ध की भूमिका पर आने से पूर्व तक यदि व्यक्ति उक्त कर्म का संक्रमण, निर्जरण या उदीरण कर लेता है तो प्रारब्ध में परिवर्तन भी हो जाता है। परन्तु इस तथ्य को न समझने के कारण ही बहुत-से व्यक्ति प्रारब्ध के ही भरोसे हाथ पर हाथ धरकर, आलसी बनकर बैठ जाते हैं; कर्मों का संक्रमण, निर्जरण या उदीरण आदि करने का कोई भी पुरुषार्थ नहीं करते। १. कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से साभार अनूदित पृ. १८, १६ २. इसके लिये देखें-कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) पृ. १९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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