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________________ कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ५९९ एकाउंट में बैलेंस नहीं होगा तो आप पाँच रुपये का चैक भी उस बैंक में भेजेंगे, तो वह नहीं स्वीकारेगा और आपकी उस बैंक मैनेजर के साथ कट्टर दुश्मनी हो तो भी आपका हजारों रुपयों का चैक वह स्वीकार कर लेगा; क्योंकि बैंक के एकाउंट में आपकी बहुत बड़ी रकम संचित रूप में बैलेंस में जमा पड़ी है। अत. बैंक मैनेजर के इस प्रकार के व्यवहार से आपको बुरा नहीं मानना चाहिए अपितु कमर कसकर आपको बैंक में अपने एकाउंट में अधिकाधिक रकम जमा करानी चाहिए। इसी प्रकार कर्म की बैंक में भी वर्तमान में पापी के भी पूर्वसंचित पुण्य धन जमा हैं, तो उसे सब कार्यों में सफलता मिलेगी और वर्तमान में पुण्यशाली के यदि पूर्वसंचित पाप जमा हैं तो उसे विफलता मिलेगी। इसलिए कर्म के इस निष्पक्ष कानून और यथायोग फलप्रदान से नाराज न होकर अधिकाधिक पुण्य कर्मों को संचित करना चाहिए।' तीनों गुणों वाले व्यक्तियों की क्रियमाण कर्म करने की पद्धति गीता में सत्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी जीवों की क्रियमाण कर्म करने की पद्धति का पृथक्-पृथक् दिग्दर्शन कराया गया है। कर्म का फल तो तीनों ही प्रकार के जीवों को निश्चित ही मिलने वाला है। परन्तु सत्वगुणी जीव कहता है-"मैं कर्म (कर्तव्यकम) करूँगा, फल मिले या न मिले," रजोगुणी जीव कहता है-"मैं कर्म (कर्तव्यकम) करूँगा, किन्तु फल नहीं छोडूंगा।" और तमोगुणी जीव कहता है-"फल नहीं मिलेगा, वहाँ तक मैं कर्म नहीं करूँगा।" श्री हीराभाई द्वारा इस सम्बन्ध में एक रूपक द्वारा इस प्रकार स्पष्टीकरण किया गया है एक मनुष्य का पुत्र अकस्मात् रात के बारह बजे बीमार पड़ा। वह आधी रात को. डॉक्टर को बुलाने गया। डॉक्टर सत्वगुणी था। उसने गाढ़निद्रा से जागकर जाना कि उस व्यक्ति का पुत्र सचमुच सख्त बीमार है। तो वह तुरंत इंजेक्शन और दवाइयों का बेग लेकर रोगी को देखने हेतु जाने को तैयार हो गया। उस व्यक्ति ने जब डॉक्टर को विजिट फीस के बारे में पूछा तो उक्त सत्वगुणी डॉक्टर ने कहा-विजिट फीस की बात बाद में, पहले मुझे तुम्हारे पुत्र का रोग मिटाने दो। यद्यपि विजिट फीस तो उसे मिलेगी ही, परन्तु उसकी वृत्ति, प्रवृत्ति और वाणी यह होगी-"विजिट फीस मिले या न मिले, मैं तो रोग मिटाऊँगा।" १. कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से साभार अनूदित पृ. १४-१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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