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________________ कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ६०१ कट्टर प्रारब्धवादी पुरुषार्थहीन हो जाते हैं कई कट्टर प्रारब्धवादी यों मानने लगते हैं कि मनुष्य को कुछ भी सत्पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं है, प्रारब्ध में जो कुछ होगा, वही मिलेगा। परीक्षा में पास होना होगा तो पास हो जाएँगे, अन्यथा चाहे जितनी मेहनत करलें, अगर प्रारब्ध में अनुत्तीर्ण होने का होगा तो अनुत्तीर्ण ही होंगे। अतः पढ़ने-लिखने का नाहक कष्ट क्यों उठाया जाए ? ऐसी भ्रान्ति के शिकार होकर कई एकान्त प्रारब्धवादी विद्यार्थी परीक्षा का परिणाम प्रारब्ध या भगवान् पर छोड़कर आलसी बनकर बैठ जाते हैं। ऐसे मूर्ख प्रारब्धवादी पुरुषार्थ का अर्थ और रहस्य बिलकुल समझे नहीं हैं। कहाँ प्रारब्ध को लगाना चाहिए और कहाँ पुरुषार्थ को? इसका विवेक जिसे नहीं है, वह न तो प्रारब्ध को सुधार पाता है और न ही प्रारब्ध के भरोसे बैठा रहकर सत्पुरुषार्थ करता है। लौकिक दृष्टि से प्रारब्ध और पुरुषार्थ का तालमेल __प्रारब्ध और पुरुषार्थ का समन्वय लौकिक दृष्टि से बताते हुए श्री हीराभाई ठक्कर कहते हैं-नौकरी मिलना, प्रारब्ध है; परन्तु नौकरी को वफादारी और ईमानदारी से टिकाये रखना पुरुषार्थ है। बंगला मिलना प्रारब्ध है, पर उसे साफ-सुथरा एवं व्यवस्थित रखना पुरुषार्थ है। पैसा मिलना प्रारब्ध, और उसका सदुपयोग करना पुरुषार्थ है। पुत्र मिलना प्रारब्ध है, परन्तु उसे शिक्षित और संस्कारी, धर्मप्रिय बनाना पुरुषार्थ है। आशय यह है कि जो कुछ भी जैसे भी सजीव-निर्जीव पदार्थ या साधन प्रारब्धवश मिलें, उनका विवेकबुद्धि से सदुपयोग करना पुरुषार्थ है। अधर्म, अनीति या पाप वासना से किये हुए पुरुषार्थ से प्राप्त धन, पुत्र, आदि पदार्थ अनर्थकर ही साबित होते हैं, और उनसे नये अनिष्टकर प्रारब्ध का भी निर्माण होता है।२ . लोकोत्तर आध्यात्मिक दृष्टि से प्रारब्ध से लाभ उठओ, मोक्ष पुरुषार्थ करो - लोकोत्तर आध्यात्मिक दृष्टि से प्रारब्ध से प्राप्त साधनों एवं परिस्थितियों का उपयोग करने में कैसा पुरुषार्थ करना चाहिए, इस विषय में कुछ संकेत सूत्र ये हैं-पैसा प्राप्त हो तो पैसा होने की परिस्थिति से लाभ उठाकर मनुष्य को मोक्ष मार्ग पर चलने का तथा पैसा प्राप्त न हो तो पैसा न होने की परिस्थिति से लाभ उठाकर भी मोक्षमार्ग पर चलने का पुरुषार्थ करना चाहिए। पत्नी हो तो पत्नी होने की परिस्थिति का लाभ उठाकर ३० कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) पृ. २२ ३१ वही पृ. २२ . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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