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________________ ५८२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) कब तक यह संचित होकर सत्ता में पड़ा रहा और उसकी कालावधि पूर्ण होते ही एकदम से वह प्रकट-सा होकर कैसे फल देने लगा ? सचमुच, कर्म की इस त्रिकालकृत गतिविधि को पहचानना, समझना और उसके गणितीय नियम को हृदयंगम कर लेना बहुत ही कठिन है। 'कर्म का त्रैकालिक रूप : आगम और गीता में इसी तथ्य को सूत्रकृतांगसूत्र में अनावृत करते हुए कहा गया है"पहले (अतीत में) जैसा भी जो कुछ कर्म किया गया है, (संचित हुआ या सत्ता में पड़ा हुआ) वह कर्म भविष्य में उसी रूप में उपस्थित होता है । " भगवद्गीता में भी इसका रहस्य प्रकट करते हुए कहा गया है"(दिव्य वैभव एवं सुख भोगों में लीन) वे देव भी, विशाल स्वर्गलोक के सुखों का उपभोग करने के बाद संचित पुण्य कर्मों के क्षीण हो जाने पर (प्रारब्धवश) पुनः स्वकर्मानुसार मर्त्यलोक में आकर जन्म लेते हैं । " २. कर्म का त्रैकालिक रूप समझना अत्यावश्यक इस प्रकार जैन और वैदिक कर्ममर्मज्ञों ने कर्म के त्रिकालवर्ती अनेक रूप-स्वरूप का विभिन्न दृष्टियों से युक्ति, श्रुति और अनुभूति के आधार पर विश्लेषण किया है। संसार में कर्म के इस त्रिकालवर्ती सार्वभौम सर्वप्राणिगत स्वरूप को तथा विभिन्न रूपों में परिणत होने के उसके अटल गणितीय नियम को प्रत्येक जिज्ञासु और मुमुक्षु को समझना बहुत ही आवश्यक है। जैनकर्म-वैज्ञानिकों ने विभिन्न पहलुओं से कर्म के लक्षण, स्वरूप और रूपों का वर्णन किया है। साथ ही उन्होंने कर्म के विभिन्न रूपों की अपेक्षा सांसारिक आत्माओं की विभिन्न अवस्थाओं का भी सरल एवं स्पष्ट विश्लेषण किया है। ܕ प्रत्येक दर्शन में कर्म की कालकृत तीन अवस्थाएँ जैन-कर्ममर्मज्ञों ने प्रत्येक कर्म की कालकृत तीन अवस्थाएँ मानी हैंबध्यमान, सत् और उदीयमान । इन्हें ही वे क्रमशः बन्ध, सत्ता और उदय कहते हैं। अन्य दार्शनिकों और धर्मों ने भी इन तीन कालकृत अवस्थाओं का भिन्न-भिन्न नामों से प्ररूपण किया है । वेदान्त आदि वैदिक दर्शनों में 'बन्ध' को 'क्रियमाण', 'सत्ता' को 'संचित' और 'उदय' को 'प्रारब्ध' कहा गया है। १. "जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए । " २. "ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । " Jain Education International -सूत्रकृतांग, १/५/२/२३ - भगवद्गीता अ. ९, श्लो. २१ ३. (क) कर्मग्रन्थ भाग १ प्रस्तावना (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.) से पृ. ६३ (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ प्रस्तावना (मरुधर केसरी मिश्रीमलजी म.) से पृ. २२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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