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________________ १३ कर्म के कालकृत त्रिविध रूप कालकृत कर्म : त्रैकालिक रूप में कर्म चाहे भला हो या बुरा, इस जन्म में किया हुआ हो, या पूर्वजन्म में या उससे भी कई पूर्वजन्मों पहले किया हुआ हो, अथवा इस जन्म में भी दिन, रात, सप्ताह, पक्ष, मास या वर्ष अथवा कई वर्ष पहले किया हुआ हो, वह कर्म है, कर्म का ही एक कालकृत रूप है; उसका फल या तो देर सबेर से भोगना पड़ता है; या फल देने से पूर्व उसका संक्रमण, उदीरण, या निर्जरण न किया गया हो तो अशुभ रूप में अथवा शुभकर्म अशुभरूप में, वह फल देता है अथवा क्षीण होकर वह शुद्ध कर्म बन जाता है। आशय यह है कि प्रवाहरूप से अनादि कर्म जन्म-जन्मान्तर में, अथवा एक जन्म में भी विविध रूपों तथा विभिन्न कालकृत परिणमनों के रूपों में प्रत्येक सांसारिक प्राणी के साथ बद्ध होता है, संचित (सत्ता में) रहता है, और समय आने पर फल भोग कराने के लिए उद्यत होता है। इस प्रकार हम कर्म को 'अनेकरूपरूपाय' कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं। कर्म की त्रिकालकृत गतिविधि को जानना - समझना अति कठिन कई बार मनुष्य इस भ्रम में रहता है कि "मैं अभी तो धन, वैभव, ऐश्वर्य एवं सुख-साधनों से सम्पन्न हूँ। मेरे पीछे कोई भी कर्म नहीं है । कर्म अब मेरा क्या करेंगे? उन्होंने अब मेरा पीछा छोड़ दिया है। मैं सुखी और स्वतंत्र हूँ, सांसारिक पदार्थों का मनचाहा उपभोग कर सकता हूँ। " परन्तु जो कर्म प्रच्छन्न रूप से उसकी आत्मा के साथ संलग्न होकर सोया पड़ा था, वही संचित कर्म उदय में आकर फल देने के लिए उद्यत होता है। प्रारब्ध के रूप में वही कर्म व्यक्त-सा होकर किसी भी रूप में दुःख, संकट, विपत्ति और उपद्रव करता है तब उसकी पूर्वोक्त अन्धश्रद्धा और भ्रान्ति को हिला देता है। उसे उस समय तक यह पता ही नहीं चलता कि यह कर्म किस समय मेरे जीवन रूपी कैसेट के टेप पर कम्पन के रूप में अंकित हुआ था, और ५८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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