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कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ५८३
पातंजल योग-दर्शन में भी कर्म के कालकृत तीन रूप-जाति, आयु और भोग, इस तीन नामों से बताए गये हैं। वास्तव में ये कर्म-विपाक के तीन प्रकार हैं। कर्मों के बन्ध, सत्ता और उदय के अन्तर्गत संख्यातीत प्रश्न और समाधान
जैनकर्ममर्मज्ञों ने बध्यमान, सत् और उदीयमान इन तीन कालकृत कर्मों के विविध अवान्तर प्रश्नों को भी समाहित किया है। आत्मा के साथ कर्म कब और कैसे बंधते हैं ? उसके कारण क्या हैं ? किस कारण से कर्म में बांधने की तथा फल भुगवाने की कैसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है या हो रही है ? आत्मा के साथ किस कर्म का सम्बन्ध कम से कम और अधिक से अधिक कितने समय तक रहता है ? किस बद्ध कर्म की कम से कम और अधिक से अधिक कितनी काल-सीमा है ? कौन-सा कर्म कितने समय तक फल देने में समर्थ रहता है ? कर्म के फल देने का नियत समय बदला भी जा सकता है या नहीं? यदि बदला जा सकता है तो उसके लिए कैसे आत्म-परिणाम आवश्यक हैं ?
बध्यमान एवं बद्ध तथा सत्ता में स्थित (संचित) कर्मों की तीव्रता को वर्तमान तथा भविष्य में मन्दता में, तथा मन्दता को तीव्रता में अथवा शुभकर्मों को अशुभरूप में एवं अशुभकर्मों को शुभरूप में परिणत कैसे, किन आत्मपरिणामों से और कब तक परिणत किया जा सकता है ? कर्मबन्ध से आत्मा कब बद्ध होता है, ओर कब और कैसे उसकी मुक्तदशा होती है ?
कर्म की बन्धकालीन तीव्र-मन्द शक्तियाँ किस प्रकार बदली जा सकती हैं ? पीछे से विपाक (फल) देने वाला कर्म पहले ही कब और किस प्रकार भोगा जा सकता है ? कितना भी प्रबल कर्म हो, उसका विपाक कब
और कैसे शुद्ध आत्मिक परिणामों से रोका जा सकता है ? और किसी समय लाख प्रयत्न करने पर भी कर्म का फल बिना भोगे क्यों नहीं छूटता ? आत्मा कब और किस अपेक्षा से कर्म का कर्ता और भोक्ता है, और कब और किस अपेक्षा से वह कर्म का कर्ता-भोक्ता नहीं है ?
संक्लेशरूप परिणाम अपनी आकर्षण शक्ति से कब और कैसे एक प्रकार की सूक्ष्मरजः-पटल आत्मा पर डाल देते हैं ? और कब आत्मा अपनी वीर्य शक्ति के प्रकटीकरण द्वारा इस सूक्ष्मरजः-पटल को दूर फेंक देती है ? . स्वभावतः शुद्ध आत्मा भी कर्म के प्रभाव से कब और किस-किस प्रकार मलिन-सी दीखती है ? हजारों बाह्य आवरणों के होने पर आत्मा
१. (क) कर्मग्रन्थ भाग २, प्रस्तावना (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.) पृ. २२ (ख) सतिमूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः।
-योगदर्शन २/१३
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