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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
परन्तु जैसे कुछ बादल ऐसे होते हैं, जो सूर्य के ताप और प्रकाश तथा उसकी शक्तियों और रश्मियों को इतना आवृत नहीं कर पाते, जिससे कि सूर्य ताप एवं प्रकाश न दे सके, शक्ति और स्फूर्ति प्रदान न कर सके। इसी प्रकार कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जो आत्मा के मूल गुणों को तो आवृत एवं कुण्ठित नहीं कर पाते, वे आत्मा के प्रतिजीवी गुणों को प्रभावित करते हैं, कुण्ठित कर देते हैं। घाति कुल और अघाति कुल के कर्म
- जैन कर्मविज्ञानवेत्ताओं ने इन दोनों में से एक को घातिकर्म और दूसरे को अघातिकर्म कहा है। वैसे तो आठ मूल कर्म-प्रकृतियों के ही ये अवान्तर भेद हैं। कर्मविज्ञानविदों ने आठ मूल कर्मप्रकृतियों का दो कुलों में वर्गीकरण कर दिया है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय; इन चार कर्मप्रकृतियों (कर्मों) को घातिकर्म के कुल में और वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्म प्रकृतियों को अघातिकर्म (अघात्य) के कुल में समाविष्ट किया है। घातिकुलीन कर्म का लक्षण
घातिकुल के कर्मों का लक्षण जैनाचार्यों ने इस प्रकार किया है-जो कर्म आत्मा से बँधकर उसके स्वरूप का तथा उसके स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं, उन्हें क्षति पहुँचाते हैं, उन पर पर्दा बनकर छा जाते हैं, उन्हें आवृत कर देते हैं, जिससे वे अपनी शक्तियों को प्रकट नहीं कर पाते, वे घातीकर्म या घातिक अथवा घात्यकर्म कहलाते हैं।
'धवला' में इसका अर्थ यों किया गया है-"जो कर्म आत्मा की स्वाभाविक शक्ति, अर्थात्-केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य (पराक्रम), क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दान तथा क्षायोपशमिक गुणों का घात करते हैं, उन्हें नष्ट करते हैं, वे घाती कर्म कहलाते हैं।"२
ये घाति कर्म जीव-मुक्ति में बाधक और केवलज्ञान के प्रतिबन्धक होते हैं। इन घाति कर्मों की अनुभागशक्ति का असर आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुणों पर होता है, जिससे आत्मिक गुणों का विकास अवरुद्ध हो जाता
१. (क) "तत्रघातीनि चत्वारि कर्माण्यन्वर्थ संज्ञया ।
घातकत्वाद् गुणानां हि जीवस्यैवेति वाक्-स्मृतिः॥ -पंचाध्यायी २/९९८ (ख) "आवरण-मोह-विग्घं घादी, जीव-गुण-घातणात्तादो।"
-गोम्मटसार कर्मकाण्ड ९ (ग) धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) से पृ. १३ २. धवला पु. ७ खं. २ भा. १ सू. १५ पृ. ६२ ३. धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) से पृ. ६३-६४ .
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