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________________ कर्मों के दो कुल : घाति और अघाति कुल ५७३ ये चारों घातिकर्म क्रमशः आत्मा के अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख और अनन्तवीर्य (शक्ति), इन चार मुख्य गुणों का तो घात करते ही हैं, साथ ही उसके अनुजीवी गुणों-क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य आदि स्वभावों (आत्मधर्मों) का विकास भी अवरुद्ध कर देते हैं। घातिकर्म किस प्रकार आत्मगुणों का घात करते हैं ? यद्यपि घातीकर्म आत्मा के गुणों का पूर्णतया घात नहीं कर सकते, आत्मा का मूल एवं अभिन्न गुण ज्ञान है। उसका पूर्णतया घात ज्ञानावरण नामक घातिकर्म नहीं कर सकता। ज्ञान का पूर्णतया घात कर दे तो आत्मा, आत्मा न रहकर अनात्मा बन जाएगा। फिर तो कर्म और आत्मा दोनों ही जड़ हो जाएँगे। 'नन्दीसूत्र' में बताया गया है कि "ज्ञान आत्मा का मौलिक गुण है। वह पूर्णरूपेण कभी आवृत नहीं हो सकता। यदि वह दिव्यगुण भी आवृत हो जाए तो जीव अजीव हो जाएगा। अतः सभी जीवों के अक्षर (ज्ञान) का अनन्तवाँ भाग तो नित्य उद्घटित रहता है। मेघसमूह कितना ही सघन हो, सूर्य अपनी प्रभा से घनघोर घटाओं को विदीर्ण करके प्रकाशमान होने में समर्थ है। फिर भी घाती कर्म आत्मा के गुणों का विकास करने में घातक-बाधक अवश्य बनते हैं। चारों घाती कर्मों का कार्य ___ ज्ञानावरण कर्म आत्मा की अनन्त ज्ञानशक्ति का घात करता है, वह ज्ञानगुण को प्रकट नहीं होने देता। दर्शनावरण कर्म आत्मा की अनन्त दर्शनशक्ति को आवृत करता है, उसे प्रकट होने नहीं देता। मोहनीय कर्म आत्मा के सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के गुणों के विकास में घातकबाधक एवं अवरोधक बनता है। वह आत्मा को मोहमूढ़ बनाकर उसे सच्चे मार्ग (सत्य) का भान नहीं होने देता। इतना ही नहीं, वह उस सत्यपथ पर चलने भी नहीं देता, जिससे आत्मा को निराकुल अव्याबाध सुख की प्राप्ति नहीं होती। अन्तराय कर्म आत्मा की अनन्त वीर्यशक्ति आदि का प्रतिघात करता है, जिससे आत्मा अपनी अनन्त विराट् शक्ति का विकास एवं जागरण नहीं कर पाता। . घातिक कर्मों की उत्कटता .. प. ज्ञानमुनि जी घातिक कर्मो की उत्कटता का वर्णन करते हुए १. "सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंत भागो णिच्चुग्घाडिओ हवइ। जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेणं जीवा अजीवत्तं पावेज्जा।।। . सुट्ठ वि मेह-समुदये होइ पभा चंद-सूराणं।" -नन्दीसूत्र सू. ४३ २. धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) से भावांश उद्धृत पृ. ६४ ३. इन आठों ही कर्मों (कर्म-प्रकृतियों) की व्याख्या 'प्रकृतिबन्ध' प्रकरण में देखिये। - सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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