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________________ आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक ३३ मुक्ति में या मृत्यु के पश्चात् या अन्य किसी स्थिति में चेतना किसी भी समय समाप्त हो जाएगी। यह स्वतः प्रमाण मनोविज्ञान को यह मानने के लिए बाध्य करता है कि जीव-चेतना (आत्मा) की स्वतंत्र सत्ता है।" भौतिक विज्ञान द्वारा भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व अस्वीकृत नहीं भौतिक विज्ञान 'मैटर' का विश्लेषण कुल ९२ तत्त्वों (एलीमेंट्स) के आधार पर करता है। तत्त्वों की भिन्नता उनके पृथक्-पृथक् गुण कर्मों के आधार पर की जाती है। इन तत्त्वों (Elements) में किसी में भी चेतना गुण नहीं पाया जाता। ऐसी स्थिति में चेतना (आत्मा) को एक स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करने के सिवाय कोई चारा नहीं रह जाता। भले ही वह (आत्मा) अमुक शरीर में अमुक स्तर की हो, पर है वह स्वतंत्र ही। चेतना के स्तर का शरीर तथा अन्य अंगोपांग, इन्द्रिय आदि का मिलना उस-उस प्राणी के पूर्वकृत कर्म पर निर्भर है। चेतना के स्तर का शरीर मिलना अथवा शरीर के स्तर की चेतना प्राप्त होना, इस विवाद में मुख्य और गौण होने का मतभेद है, किन्तु चेतना (आत्मा) के स्वतंत्र अस्तित्व की अस्वीकृति नहीं है। मृतात्माओं की हलचलों के जो प्रामाणिक विवरण समय-समय पर मिलते रहते हैं और पिछले जन्मों की यथार्थ स्मृति की प्रामाणिक घटनाएँ प्रत्यक्ष परिचय में इतनी अधिक संख्या में आ गई हैं कि चेतना के स्वतंत्र अस्तित्व से इन्कार करने की पिछली पीढी के वैज्ञानिकों की बात अनायास ही निरस्त हो जाती है। ... फिर पदार्थविज्ञानी यह भी मानते हैं कि किसी भी तत्त्व (एलीमेंट) के 'मूलभूत गुणधर्म को बदला नहीं जा सकता। उनके सम्मिश्रण से पदार्थों की शक्ल बदली जा सकती है, अर्थात् वे अपने मूलरूप में बने रहकर अन्य प्रकार की शक्ल या स्थिति तो बना सकते हैं, पर रहेंगे तज्जातीय ही। यानी दो प्रकार की गन्धे मिलकर तीसरे प्रकार की गन्ध बन सकती है, दो प्रकार के स्वाद मिल कर तीसरे प्रकार का स्वाद बन सकता है, पर वे रहेंगे गन्ध या स्वाद ही, वे रूप या रंग नहीं बन सकते। अर्थात् रंग को गन्ध में, गन्ध को स्वाद में, स्वाद (रस) को रूप में, अथवा रूप को स्पर्श में नहीं बदला जा सकता। - इसी सिद्धान्त के अनुसार पदार्थविज्ञान द्वारा मान्य ९२ तत्त्व जड़ हैं, वे चेतन नहीं बन सकते, न ही चेतन के रूप में बदल सकते हैं, और न जड़ से चेतना उत्पन्न हो सकती है। जड़ और चेतन दोनों स्वतंत्र तत्त्व हैं। दोनों का संयोग होने पर भी दोनों के मूलभूत गुण-धर्म पृथक्-पृथक् रहेंगे। . इसी प्रकार मस्तिष्क को संवेदना का आधार तो माना जा सकता है, पर उसके कण अपने आप में संवेदनशील नहीं हैं। यदि होते तो १ अखण्ड ज्योति, मई १९७६, पृ. ४ से सार-संक्षेप । २ अखण्ड ज्योति, मई १९७६, पृ. ३-४ से साभार उद्धृत सार संक्षेप । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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