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________________ ३२ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) अतः जैन दर्शन की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा स्व-स्व-शरीर-व्यापी हैशरीर प्रमाण है, न उससे कम है और न उससे अधिक। आत्मा में सिकुड़ने और फैलने का गुण होता है। इसलिए वह (संसारी आत्मा) अपने कर्मोदय के फलस्वरूप प्राप्त शरीर के प्रमाण वाली हो जाती है। जिस प्रकार दीपक को एक छोटी-सी कोठरी में रखने पर उसका प्रकाश उस कोठरी तक ही सीमित रहता है, किन्तु जब उसी दीपक को एक बड़े हॉल में रख दिया जाता है तो उसका प्रकाश उस बड़े हॉल में फैल जाता है। इसी प्रकार आत्मा भी चींटी और हाथी के शरीर में उनके शरीर प्रमाण : संकुचित-विकसित हो जाती है।' आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा स्वतंत्र-आत्मा मान्य यद्यपि अधिकांश पाश्चात्य भौतिक वैज्ञानिक आत्मा. को स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानते, कई उस विषय में शंकाशील हैं। फिर भी कई ऐसे धुरन्धर भौतिक विज्ञानी हैं, जिन्होंने अपना समग्र जीवन भौतिक चिन्तन में व्यतीत किया, किन्तु अन्ततोगत्वा उन्होंने यह माना और सिद्ध करके बताया कि भौतिक तत्त्वों से पर एक आत्म तत्त्व भी है, जिसकी समानता भौतिक तत्त्व नहीं कर सकते। वैज्ञानिक जगत् में सर ऑलीवर लॉज और लार्ड केलविन इस चिन्तन में अग्रणी हैं। ये दोनों वैज्ञानिक विद्वान चेतन तत्त्व को जड़ तत्त्व से पृथक् मानते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने जड़वादियों की युक्तियों का निराकरण अपनी प्रबल युक्तियों और अनुभूतियों के आधार पर किया है। उनका मन्तव्य है कि आत्मा (चेतन) का स्वतंत्र पृथक् अस्तित्व स्वीकारे बिना भौतिक तत्त्वों से चेतनाशील जीवों के देह की विशिष्ट एवं विलक्षण रचना हो ही नहीं सकती। वे मस्तिष्क को ज्ञान का मूल उत्पत्तिस्रोत न मानकर आत्मा को ही ज्ञान का मूलस्रोत समझते थे। उसी से इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि साधनों (करणों) के माध्यम से ज्ञानादि की अभिव्यक्ति मानते थे। जैव-वैज्ञानिकों द्वारा आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध विश्व-विख्यात जीव वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने तो वनस्पति आदि एकेन्द्रिय एवं सुषुप्तचेतनाशील जीवों के शरीर में भी चेतना (आत्मा) के लक्षण प्रत्यक्ष सिद्ध करके बता दिये हैं। अपने आविष्कारों से उन्होंने समग्र वैज्ञानिक-जगत् को आत्मा नामक स्वतंत्र एवं जड़तत्त्व से पृथक् तत्त्व मानने के लिए बाध्य कर दिया है। मनोवैज्ञानिक भी आत्मा की स्वतंत्र एवं शाश्वत सत्ता से सहमत मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी आत्मा के अस्तित्व को स्वतंत्र रूप से सिद्ध करते हैं। चेतना स्वयं इस तथ्य को कदापि स्वीकार नहीं करेगी कि १ कर्मग्रन्थ भा. १ प्रस्तावना से सार-संक्षेप साभार उद्धृत । २ वही, प्रस्तावना प. ३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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