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________________ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व ( १ ) मरणोपरान्त भी अनुभूतियाँ एवं संवेदन करते रहते। ध्वनि या प्रकाश के कम्पन जड़ हैं, मस्तिष्कीय अणु भी जड़ हैं। दोनों के मिलन से जो विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं, उनमें (जड़) पदार्थों (मैटर) को उनका कारण नहीं माना जा सकता। विचारहीन- संवेदनाहीन परमाणु संवेदनशील बन. सकें, ऐसा कोई आधार अभी तक नहीं खोजा जा सका है। इसके लिए चेतना (आत्मा) की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार किये बिना, आत्मा के बिना उनमें चेतना की उत्पत्ति सिद्ध करने के लिए, जितने तर्क पिछले दिनों दिये जाते रहे, वे सब अब क्रमशः अपनी तेजस्विता खो चुके हैं। 'अमुक रसायनों या परमाणुओं के मिलने से चेतना की उत्पत्ति होती है, और उनके बिछुड़ने से समाप्ति।' यह तर्क प्रारम्भ में बहुत आकर्षक प्रतीत हुआ था, और चावकि आदि नास्तिक - वादियों ने जीव को इसी रूप में बताया था, परन्तु 'मूल तत्त्व अपने गुण धर्म या प्रकृति को नहीं बदल सकता, इस प्रकार के अपने ही मत - प्रतिपादन से अपना ही खण्डन हो रहा है। किसी परखनली में चेतन जीवाणुओं की सहायता के बिना केवल रासायनिक पदार्थों की सहायता से जीवन उत्पन्न कर सकना सम्भव नहीं हुआ है। इससे यह निश्चित है कि जड़ पदार्थों से चेतना की उत्पत्ति कथमपि सम्भव नहीं है। वह स्वतंत्र तत्त्व है। ३४ "हर्ष, शोक, क्रोध, अहंकार, राग, द्वेष, मोह, आशा, निराशा, प्रेम, सुख-दुःखानुभव आदि विभिन्न संवेदनाएँ किन परमाणुओं के मिलने से किस प्रकार उत्पन्न हो सकती हैं ?" इस विषय में भौतिक विज्ञान सर्वथा निरुत्तर है। “स्नायु-संचालन से संवेदना उत्पन्न होती है, पर संवेदना स्नायु नहीं हो सकती। अमुक रासायनिक पदार्थों के संयोग से उत्तेजना पैदा होती है, परन्तु उत्तेजना रासायनिक पदार्थ नहीं है, क्योंकि स्नायु या रासायनिक पदार्थ स्वयं चेतनाशील नहीं है।"" वे चेतना के उत्पादक नहीं हो सकते, चेतना के विकास में माध्यम बन सकते हैं। जहाँ जहाँ संसारी आत्मा, वहाँ-वहाँ कर्म अवश्यम्भावी पूर्वोक्त समस्त प्रमाणों एवं युक्तियों तर्कों पर से यह स्पष्ट हो जाता है, कि आत्मा नामक एक स्वतंत्र तत्व है, जिसका अस्तित्व अनादि- अनन्त है | शरीरादि के नष्ट होने पर भी वह परलोक में जाता है। अमूर्त आत्मा कथंचित् मूर्त माना गया है। इसलिए स्व-स्व - कर्म के वश विभिन्न गतियों और योनियों में जाता है। इस प्रकार संसारी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होने पर उसके साथ प्रवाहरूप से कर्म का अस्तित्व भी मोक्ष प्राप्ति के पूर्व तक अवश्यम्भावी मानना ही पड़ेगा। १ अखण्ड ज्योति, मई १९७६, पृ. ४ से सार संक्षेप उद्धृत । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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