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________________ कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५१३ इस सम्बन्ध में गीता और जैनदर्शन दोनों एकमत हो जाते हैं। आचारांग और सूत्रकृतांग में भी कर्म और अकर्म की, अर्थात्-बन्धक और अबन्धक कर्म की भिन्नता स्पष्ट रूप से बताई गई है। आस्रव संवररूप और संवर आम्रवरूप हो जाते हैं क्यों और कैसे ? आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि जो आस्रव (कर्मों के आगमन और बन्ध के कारण) हैं, वे परिस्रव (संवर-कर्मों के निरोध एवं निर्जरा के कारण) हो जाते हैं, इसके विपरीत जो परिस्रव (संवर) हैं, वे आस्रव भी हो जाते हैं।" इन दोनों सूत्रों का आशय यह है कि जो आस्रव एवं बंध के स्थान या निमित्त हैं, वे व्यक्ति की आत्मजागृति, संवर एवं निर्जरा (कर्म के अंशतः क्षय) के भावों को लेकर संवर एवं निर्जरा के कारण या निमित्त बन जाते हैं, इसके विपरीत जो संवर और निर्जरा के स्थान, कारण या निमित्त हैं, वे भी व्यक्ति (कत्ता) के कषायादि या रागादि भावों को लेकर आस्रव एवं बन्ध के कारण, निमित्त या स्थान बन जाते हैं। उदाहरणार्थ-दो मित्र एक अपरिचित नगर में पहुँचते हैं। उनमें से एक ने सुना कि इस नगर में जैन-धर्मस्थानक है, वहाँ साधु-मुनिराज विराजमान हैं। उसने अपने मित्र से कहा-“मैं मुनिवर का प्रवचन सुनने स्थानक में जाऊँगा। उनके सरस सुन्दर प्रवचन सुनूँगा।" दूसरे ने कहा-“मैं मुनिराज का नीरस प्रवचन सुनने नहीं जाऊँगा। मैं तो वेश्या की महफिल में जाऊँगा, वहाँ सरस रोचक गीत सुनूगाँ, नृत्य देखूगां।" । दोनों मित्र अपने-अपने मनोनीत स्थल पर पहुँच जाते हैं। परन्तु मुनिराज़ का प्रवचन सुनने वाला व्यक्ति थोड़ी ही देर में ऊब गया और सोचने लगा-“मैं कहाँ आ फंसा ? यहाँ रूखा-सूखा नीरस विषय है! मेरा मित्र वेश्या के सरस नृत्य-गीत का दर्शन-श्रवण कर रहा होगा। मैं भी वहाँ जाता तो अच्छा रहता।" ...किन्तु वेश्या की महफिल में पहुँचने वाला मित्र वेश्या के नृत्य-गीतों को देख-सुनकर झुंझला उठता है। सोचता है-“मैं कहाँ इस कुटिल और धनलोलुप कामिनी के यहाँ आ फंसा। यह विषय सरस होते हुए भी मनुष्य को विषयासक्ति के अशुभ भावों में उत्तेजित करके पाप की खाई में पटकने वाला है। मेरा मित्र मुनिराज के सरस व्याख्यान सुनकर शुद्ध भावों में डूब रहा होगा। मैं आज संवर और निर्जरा के शुद्ध भावों से वंचित रहा।" १. "जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा।" -आचारागसूत्र श्रु. १, अ. ४ उ. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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