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________________ ५१२ कर्म - विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) इसलिए जो कर्म, क्रिया, प्रवृत्ति या आचरण शुद्ध तथा अबन्धकारक माने जाते हैं, वे एक समान किये जाने पर भी कर्ता के मनोभावों की अपेक्षा से बन्धक-अबन्धक रूप में भिन्न-भिन्न प्रकार के हो सकते हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्टरूप से बताया गया है कि जो ज्ञानी (प्रबुद्ध या अप्रमत्तजागृत) महाभाग हैं, वीर हैं, सम्यक्त्वदर्शी हैं, उनका वह पराक्रम - पुरुषार्थ या आचरण शुद्ध है, क्योंकि वह सर्वथा फलाकांक्षा रहित है। किन्तु इसके विपरीत जो अबुद्ध (अजागृत, प्रमत्त या अज्ञ) हैं, महान् भाग्यवान् (पुण्यशाली हैं, वीर भी हैं, किन्तु असम्यक्दर्शी हैं, उनका वह पराक्रम आचरण या पुरुषार्थ अशुद्ध है, क्योंकि वह सर्वतः फलाकांक्षायुक्त है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही कर्मवीरता दिखाते हुए चाहे समानरूप से कर्म (आचरण) करते हुए दिखाई देते हों, परन्तु उनके पीछे दृष्टि में सम्यक्त्व - असम्यक्त्व का अन्तर होने से एक का वह पुरुषार्थ शुद्ध (कर्म-अबन्धक) होता है और दूसरे का होता है-अशुद्ध (कर्म बन्धक)। आशय यह है कि ज्ञान और बोध से युक्त व्यक्ति अप्रमत्त होकर कषायरहित वृत्ति से एकमात्र निर्जरा (कर्मक्षय) या संवर (कर्मनिरोध) की दृष्टि से पराक्रम करता है तो उसका वह पराक्रम अशुद्ध तथा कर्मबन्धकारक नहीं होता, उसे उसका कुछ भी फल भोगना नहीं पड़ता, जबकि अज्ञानी और सम्यक्बोध से रहित वृत्ति का पराक्रम सकाम-कामनायुक्त होने से निर्जरा एवं संवर से रहित होता है, इस कारण वह पराक्रम अशुद्ध और कर्मबन्धकारक होता है, उसका फल उसे सर्वथा भोगना पड़ता है।' इसलिए बन्धन- अबन्धन की दृष्टि से कर्म अकर्म का विचार उसके बाह्य रूप के आधार पर नहीं किया जा सकता, उसके पीछे कर्ता की दृष्टि, प्रयोजन, परिणाम (भाव), देश - कालगत परिस्थितियाँ एवं विवेक को भी देखा जाता है। इसी कारण भगवद्गीता में कहा गया है - "कौन-सा कर्म (बन्धक कर्म) है और कौन-सा अकर्म ( अबन्धक कर्म) है ? इस विषय में विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं । " " अतः किसी कर्म, आचरण, प्रवृत्ति या पुरुषार्थ को ऊपर-ऊपर से देखकर यथार्थ निर्णय करना कठिन हो जाता है कि वह कर्म बन्धनकारक है या अबन्धक ? १. जे य बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदंसिणो, सुद्धं तेसिं परक्कन्तं अफलं होइ ससव्वसो । या बुद्धा महाभागा वीराऽसमत्तदंसिणो, 'अशुद्ध' तेसिं परक्कतं सफलं होइ सव्वसो । २. (क) 'किं कर्म, किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । ' - सूत्रकृतांग श्रु. १, अ. ८/२३-२४ - भगवद्गीता ४/१६ (ख) जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) के भावांश उद्धृत । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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