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कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म
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है, तो पूर्वोक्त कर्म-अबन्धक कहलाने वाली साधनात्मक क्रियाएँ भी 'अकर्म के बदले 'कर्म' में ही परिगणित होंगी। साधनात्मक क्रियाएँ भी 'अकर्म के बदले कर्म रूप बन जाती हैं, कब और क्यों ? - अगर ऐसी साधनात्मक क्रियाएँ भी इहलौकिक पद, प्रतिष्ठा, कीर्ति, सम्पत्ति, सरस आहार आदि किसी भी वस्तु की प्राप्ति की कामना से प्रेरित होकर की जा रही हैं, अथवा महाव्रतादि या रत्न-त्रय की साधना भी प्रशस्त रागवश की जा रही है, तो भी कर्मक्षय करने वाली ये क्रियाएँ कर्मबन्धक हो जाएँगी। अर्थात्-वे 'अकर्म' न कहला कर 'कर्म' कहलाएँगी। भले ही वे क्रियाएँ शुभ होने से शुभकर्म (पुण्य) बन्धक हों। दशवैकालिक सूत्र में कर्मक्षय (निर्जरा) कारक अकर्मरूप तपश्चरण तथा कर्ममुक्ति के लिए साधक सम्यग्ज्ञान आदि पंचविध आचार' अथवा रत्नत्रयरूप धर्माचरण के लिए स्पष्ट कहा गया है कि इहलौकिक या पारलौकिक कामनापूर्ति के लिए तथा कीर्ति, वाहवाही, प्रशंसा, प्रतिष्ठा, प्रशस्ति, प्रसिद्धि आदि की दृष्टि से कोई भी तपश्चरण, पंचविध सम्यक् आचार का अनुष्ठान या सद्धर्माचरण मत करो; उसे एकमात्र निर्जरा (आत्मशुद्धिकर्मक्षय) के लिए अथवा वीतरागता के हेतु से करो। अन्यथा ऐसा तपश्चरण या धर्माचरण कर्मक्षयकारक होने की अपेक्षा कर्मबन्धकारक हो जाएगा। सूत्रकृतांगसूत्र में भी बताया गया है कि "योग्यरीति से किया हुआ कर्मक्षय का कारणभूत तप भी. यदि यश-कीर्ति की इच्छा से किया जाता है तो वह शुद्ध कर्म (अकम) की कोटि में नहीं होगा।"३ अकर्म भी कर्म और कर्म भी अकर्म हो जाता है, कब और कैसे ?
चूंकि ये और इस प्रकार के शुद्ध कहलाने वाले कर्म भी प्रशस्त रागयुक्त होने से शुद्धोपयोगयुक्त नहीं होते। यही कारण है कि . कर्मक्षयकारक कहलाने वाले शुद्ध कर्म (अकम) समानरूप से किये जाने पर भी वे सम्यग्दृष्टि के "शुद्धपयोगमूलक और मिथ्यादृष्टि के लिए निदानरूप फलाकांक्षा मूलक होने से पृथक्-पृथक् कोटि के हो जाते हैं।" १. ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार। २. (क) नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो
कित्तिवन-सद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा नन्नत्य निज्जर?याए तवमहि
ट्ठिज्जा।। (ख) नो इहलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नो परलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नो . कित्तिवन्न-सद्दसिलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नन्नत्य आरहंतेहिं हेउहिं
आयारमहिट्ठिज्जा॥ ३. . सूत्रकृतांग श्रु. १ अ.८ गा. २२-२४
-दश वै. ९/४/४-५
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