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५१० कर्म - विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
अकर्म की कोटि में आती हैं। यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र में "ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के सम्यक् आचरण - अप्रमत्ततापूर्वक रागादिरहित आचरण को मोक्ष (कर्मों से मुक्त होने का) मार्ग कहा गया है। " ?
संक्षेप में वे सभी क्रियाएँ, जो आस्रव एवं बन्ध की कारण हैं, कर्म हैं, और वे समस्त क्रियाएँ जो बहुधा संवर और निर्जरा की कारण हैं, वे अकर्म हैं।
अबन्धकारक क्रियाएँ भी रागादि पूर्वक कषाययुक्त होने से बन्धक हो जाती हैं
'कर्मणा बध्यते-जन्तुः' (कर्म प्राणी को बांधता है) महाभारत (शान्तिपर्व २४०) की यह उक्ति अक्षरशः सत्य नहीं है। उसका कारण यह है कि सभी कर्म या क्रिया एक सी नहीं होती । बन्धन की अपेक्षा से उनमें अन्तर होता है । क्रिया एक सरीखी होते हुए भी कोई कर्मबन्धकारक नहीं होती, कोई कर्मबन्धकारक होती है। इसलिए कौन-सा कर्म बन्धन कारक है, कौन-सा नहीं ? ; इसका निर्णय केवल क्रिया के आधार पर से नहीं होता ।
जैनदर्शन इसका निर्णय कर्ता के भावों, परिणामों, तथा उस क्रिया के प्रयोजन-उद्देश्य के आधार पर करता है। मान लीजिए, एक साधक अहिंसा-सत्यादि महाव्रतों का पालन कर रहा है, अथवा बाह्य तथा आभ्यन्तर द्विविध तपस्या कर रहा है, सेवा (वैयावृत्य) कर रहा है, पांच समिति, तीन गुप्ति का पालन भी कर रहा है, धार्मिक क्रियाएँ भी कर रहा है, परन्तु इन सबके पीछे उसकी दृष्टि एवं वृत्ति सम्यक् नहीं है, या कषायरहित नहीं है, अथवा उसका उद्देश्य उत्कृष्टाचारी, क्रियापात्र, या इसी प्रकार की किसी प्रतिष्ठा-अर्जन करने का है, अथवा अपने अनुयायियों या भक्तों की संख्या बढ़ाकर उनसे उत्तमोत्तम वस्त्र, पात्र, उपकरण अथवा सरस स्वादिष्ट आहार आदि वस्तुएँ प्राप्त करने की आन्तरिक इच्छा है, अथवा उत्कृष्टाचार-विचार बताकर या उत्कृष्ट तपश्चरण या उत्कृष्ट क्रियाओं का प्रदर्शन करके अपने तथाकथित सम्प्रदाय या मत-पंथ-मार्ग का वर्चस्व एवं यशोवर्धन करने की ललक है, अथवा सम्पन्न भक्तों को प्रभावित एवं आकृष्ट करके अपने शिष्य - शिष्याओं की शिक्षा-दीक्षा में तथा अन्य व-समारोहादि आडम्बरों में उनसे अर्थ-व्यय कराने की अव्यक्त इच्छा
उत्सव
१. (क) जैनकर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश उद्धृत पृ. ५४
-सूत्रकृतांग १/८/३
(ख) "पमायं कम्ममाहंसु अप्पमायं तहाऽवरं । " (ग) नाणं च दसणं चेव, चरितं च तवो तहा। एस मग्गेत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं ॥
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- उत्तराध्ययन सूत्र २८/२
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