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________________ कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५०९ है, द्वितीय समय में उसका वेदन होता है और तृतीय समय में वह निर्जीर्ण होकर झड़ जाता है। और तत्काल वह अकर्मा हो जाता है। कर्म का सुखस्पर्श केवल दो समय तक रहता है। "" वस्तुतः उक्त दोनों प्रकार की क्रियाओं में जो आस्रव के साथ बन्ध का कारण है, उससे होने वाला कर्म स्थिति और अनुभाव बन्ध पूर्वक उदय में आने पर शुभाशुभ फल प्रदान करने वाला होता है, जबकि जो क्रिया अकषायी वृत्ति द्वारा होती है, उससे होने वाला कर्म प्रकृति और प्रदेशोदयरूप होता है। बन्धकारक न होने से ऐसी (ऐर्यापथिकी) क्रिया संवर (कर्म-निरोध) एवं निर्जरा (कर्म के आंशिकक्षय) का कारण बनती है । रागद्वेषादियुक्त न होने से ऐसा कर्म कर्त्ता के चिपकता नहीं, वह नाममात्र का कर्म है। ऐसे कर्म को 'अकर्म की कोटि में परिगणित किया गया है। निष्कर्ष यह है कि बन्धक कर्मों को 'कर्म' और अबन्धक कर्मों का 'कर्म' होते हुए भी "अकर्म" कहा गया। बन्धक - अबन्धक कर्म का आधार बाह्य क्रियाएँ नहीं बन्धक कर्म और अबन्धक कर्म का आधार बाह्य क्रिया नहीं है, अपितु वह कर्त्ता के परिणाम, मनोभाव अथवा विवेक - अविवेक पर निर्भर है । यदि कर्ता के परिणाम रागादियुक्त नहीं हैं, शारीरिक क्रियाएँ भी अनिवार्य तथा संयमी जीवन यात्रार्थ अप्रमत्त होकर यत्नाचारपूर्वक की जा रही हैं, अथवा शारीरिक क्रियाओं से अतिरिक्त निरपेक्ष भाव से स्व-पर-कल्याणार्थ प्रवृत्तियाँ की जा रही हैं, या कर्मक्षय (निर्जरा) के हेतु ज्ञान-दर्शन- चारित्र एवं तप की अप्रमत्तभाव से साधना की जाती है, तो उससे होने वाले कर्म राग-द्वेष से रहित होने से बन्धनकारक नहीं होते, इसलिए अकर्म है। इसी दृष्टि से सूत्रकृतांगसूत्र में "प्रमाद को 'कर्म' और अप्रमाद को 'अकर्म' कहा गया है।" प्रमाद में कषाय, विषयासक्ति, विकथा, असावधानी, अयत्ना, मद आदि सभी का समावेश हो जाता है। तीर्थंकरों तथा वीतराग पुरुषों की संघ प्रवर्तन आदि लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियाँ भी १. "जाव सजोगी (कवली) भवइ, ताव ईरियावहियं कम्मं निबंधई, सुहफरिसं दुसमयठिइयं । तं पढमसमए बद्ध, बिइय समए वेइयं, तइय समए निज्जिण्णं । तं बद्धं पुढं उदीरियं वेइयं निज्जिण्णं सेयाले य अकम्मया च भवइ।" -उत्तराध्ययन सूत्र अ. २९/७१ वाँ बोल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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