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________________ ५१४. कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) इस दृष्टान्त में एक मित्र संवर निर्जरा के स्थान में जाकर भी आस्रव एवं बन्ध के उत्पादक कर्म बांध लेता है, जबकि दूसरा मित्र आस्रव और बन्ध के स्थान में जाकर भी संवर और निर्जरा का उपार्जन कर लेता है। दोनों के समक्ष मनोनीत (संवर एवं आस्रव के अनुकूल) निमित्त को पाकर भी विपरीत भावों को लेकर कर्मबन्ध और कर्मक्षय कर लेते हैं। स्थूलिभद्र मुनि अपनी पूर्वपरिचित कोशा वेश्या के (पापरूप) आस्रव एवं बन्ध के निमित्त-भूत स्थान में चातुर्मास व्यतीत करके भी संवर और निर्जरा का उपार्जन कर लेते हैं। इसीलिए कहा गया है कि कर्म भी अकर्म हो जाता है, और अकर्म भी कर्मरूप हो जाता है। वस्तुतः किसी भी क्रिया, प्रवृत्ति या आचरण का बन्धकत्व मात्र क्रिया के घटित होने में नहीं, वरन् उसके पीछे रहे हुए मन्द-तीव्र कषायभावों तथा राग-द्वेषादि मन्दता-तीव्रता पर निर्भर है। तथैव अबन्धकत्व निर्भर है-कषाय एवं आसक्ति से रहित या वीतरागता की दृष्टि से युक्त होकर किये गए कर्म या क्रिया (प्रवृत्ति) पर।' कर्म का अर्थ केवल सक्रियता और अकर्म का केवल निष्क्रियता नहीं जैनदृष्टि एवं गीता की दृष्टि में कर्म का अर्थ केवल सक्रियता या प्रवृत्तिमात्र नहीं है, और न ही अकर्म का अर्थ-निष्क्रियता या एकान्त निवृत्ति। सूत्रकृतांगसूत्र में इस एकान्तवाद का निराकरण करते हुए कहा गया है- "कुछ लोगों का कथन है-कर्म (एकान्त प्रवृत्ति या सक्रियता) ही पुरुषार्थ (वीय) है, जबकि कुछ लोग कहते हैं-अकर्म (एकान्तनिवृत्तिनिष्क्रियता) ही पुरुषार्थ (वीय) है।" इसका तात्पर्य यह है कि अधिकांश विचारकों की दृष्टि में सक्रियता या एकान्त प्रवृत्ति ही नैतिकता है, पुरुषार्थ है; जबकि कुछ लोगों की दृष्टि में एकान्त निवृत्ति या निष्क्रियता ही नैतिकता या पुरुषार्थ है। किन्तु भगवान् महावीर की दृष्टि में ये दोनों ही एकान्तवाद हैं, मिथ्यादर्शन रूप हैं, अशुद्ध पुरुषार्थ (पराक्रम या वीय) हैं। कर्म का अर्थ केवल प्रवृत्ति नहीं, अकर्म का अर्थ निवृत्ति नहीं इस सम्बन्ध में गांधीवादी प्रसिद्ध विचारक स्व. किशोरलाल मश्रुवाला के विचार मननीय हैं-"......'शरीर, वाणी और मन की क्रियामात्र कर्म है': १. (क) पूज्य आचार्य श्री जवाहरलाल जी म. के व्याख्यान (जवाहर किरणावली) से भावार्थ उद्धृत। (ख) जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश उद्धृत। २. (क) वही (डॉ. सागरमल जैन) भावांश (ख) सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. १, अ. ८, गा. १-२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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