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________________ ५०६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) भगवान् से पूछने पर श्रेणिकराज को पता लगा कि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है। और कुछ ही देर में तो वे देहमुक्त होकर सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-बुद्ध परमात्मा बन गए। यह है, बाहर से वचन और काया से निश्चेष्ट रहकर मन से घोर कर्म करने का, तथा मन से ही उन घोर कर्मों को नष्ट करने का ज्वलन्त उदाहरण। क्या सभी क्रियाएँ कर्म हैं ? ऐसी स्थिति में सहज ही यह प्रश्न होता है कि जब कोई प्राणी निश्चेष्ट नहीं रह सकता, जो भी देहधारी है, उसे मन से, वचन से और काया से कोई न कोई क्रिया करनी ही पड़ती है, शरीर की आन्तरिक क्रियाएँ, जो स्वाभाविक होती रहती हैं, वे भी शरीरधारी से सम्बन्धित हैं, तथैव शरीरधारी के द्वारा खाना-पीना, चलना-फिरना, श्वास लेना-निकालना, सोना-जागना, उठना-बैठना आदि प्राणधारणार्थ जो आवश्यक क्रियाएँ हैं, वे भी करनी पड़ती हैं, तो क्या सभी क्रियाएँ 'कर्म' कहलाती हैं ? यदि सभी क्रियाएँ कर्म कहलाती हैं, तब तो कोई भी मनुष्य यहाँ तक कि तीर्थकर भी, सर्वज्ञ केवली भी, कर्मबन्ध से बच नहीं सकते, और न ही कर्म-परम्परा से मुक्त हो सकते हैं? फिर कर्म से रहित अवस्था तो एकमात्र सिद्ध-मुक्त परमात्मा की ही माननी पड़ेगी। संसारस्थ आत्मा, चाहे उच्चकोटि का अप्रमत्त साधक हो, या वीतराग अर्हत्-परमात्मा हो, सभी शरीरगत अनिवार्य क्रियाओं से नहीं बच सकने के कारण किसी न किसी रूप में कर्म के लपेटे में आते रहेंगे। भगवद्गीता में इसका एक समाधान इस प्रकार किया गया है"चूंकि देहधारी प्राणी के द्वारा समग्ररूप से समस्त कर्मों का त्याग करना शक्य नहीं है। अतः जो कर्मफल का व फलाकांक्षा का भी त्यागी है, वही वस्तुतः कर्मत्यागी कहा जाता है।"२ पच्चीस क्रियाएँ : स्वरूप और विशेषता . इसका दूसरा समाधान यह है कि जैनदर्शन में मुख्यतया पच्चीस क्रियाएँ प्रसिद्ध हैं। उनमें से २४ क्रियाएँ साम्परायिक हैं और पच्चीसवीं क्रिया ऐयापथिक है। १. आवश्यक कथा से २. नहि देहभृता शक्यं त्यक्तु कर्माण्यशेषतः। यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥ -भगवद्गीता १८/११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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