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________________ कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५०७ चौबीस क्रियाएँ इस प्रकार हैं-(१) कायिकी, (२) आधिकरणिकी, (३) प्राद्वेषिकी, (४) पारितापनिकी, (५) प्राणातिपातिकी, (६) आरम्भक्रिया, (७) पारिग्रहिकी, (८) मायाक्रिया, (९) रागक्रिया, (१०) द्वेषक्रिया, (११) अप्रत्याख्यानक्रिया, (१२) मिथ्यादर्शनक्रिया, (१३) दृष्टिजाक्रिया, (१४) स्पर्शक्रिया, (१५) प्रातीत्यिकी क्रिया, (१६) सामन्तोपनिपातिका, (१७) स्वहस्तिकी, (१८) नैसृष्टिकी, (१९) आज्ञापनिका, (२०) वैदारिणी क्रिया, (२१) अनाभोगक्रिया, (२२) अनाकांक्षा क्रिया, (२३) प्रायोगिकी क्रिया, (२४) सामुदायिकी क्रिया। ये सभी क्रियाएँ रागद्वेषादि युक्त होने से साम्परायिकी कहलाती है।' पच्चीसवीं ऐपिथिकी क्रिया है, जो विवेक (यत्नाचारपरायण) एवं अप्रमत्त संयमी व्यक्ति की गमनागमन तथा आहार-विहारादि-चर्यारूप होती है। साम्परायिक क्रियाएँ ही बन्धनकारक, ऐपिथिक नहीं जैनदर्शन प्रत्येक क्रिया को बन्धनकारक नहीं मानता, जो क्रिया या प्रवृत्ति (मन-वचन-काया का व्यापार) राग-द्वेष-मोह से युक्त होती है, वही बन्धन में डालती है। इसके विपरीत जो क्रिया कषाय एवं आसक्ति (रागादि) से रहित होकर की जाती है, वह बन्धनकारक नहीं होती। अतः बन्धन की अपेक्षा से क्रियाओं को दो भागों में बांटा गया है-साम्परायिक क्रियाएँ और ईपिथिक. क्रियाएँ। क्रिया से कर्म का आगमन अवश्य, पर सभी कर्म बन्धनकारक नहीं इसलिए जब तक शरीर है, और शरीर से सम्बद्ध वचन और मन है; तथा इन्द्रियाँ और अंगोपांग हैं, तब तक कोई न कोई क्रिया या प्रवृत्ति होना अनिवार्य है। और यह भी सत्य है कि क्रियाओं से कर्म आते हैं। परन्तु वे सभी कर्म बन्धन में डालते हैं, ऐसा नहीं होता। इस सम्बन्ध में सम्यक् विवेक करने हेतु जैन-जगत् में एक सूत्र प्रचलित है . क्रियाए कर्म, उपयोगे धर्म, परिणामे बंध' इसका भावार्थ है-"क्रिया से कर्म आते हैं, उपयोग (शुद्धोपयोग) से धर्म होता है, और कर्मबन्ध परिणामों (रागादि शुभाशुभ भावों) पर आधारित है।" गीता के दृष्टिकोण के अनुसार जैनदर्शन भी यह स्वीकार करता है, जब तक जीवन है, तब तक शरीर से सर्वथा निष्क्रिय (योगजनित व्यापार से १. व्याख्या-प्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र श.३ उ.३ सू.१५० से १५३ २. जैनकर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश उद्धृत पृ. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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