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कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५०५
कुछ ही देर बाद उसी मार्ग से श्रेणिक राजा की सवारी निकली। वे प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ध्यानस्थ देख अत्यन्त प्रभावित हुए और भगवान् महावीर की सेवा में पहुँच कर सबसे पहला प्रश्न किया-"भगवन् । मुझे तो आपके साधुओं में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि उत्तम साधु लगते हैं। अगर वे इस समय कालधर्म को प्राप्त हों तो कहाँ जा सकते हैं, कहाँ उत्पन्न हो सकते ?"
. परम सर्वज्ञ वीतराग प्रभु ने कहा-"राजन् ! इस समय अगर उनका देहान्त हो तो वे सप्तम नरक में जा सकते हैं।"
आश्चर्यचकित श्रेणिकराज ने पूछा-"भगवन् । इतने उत्कृष्ट साधु और सप्तम नरक में ? कुछ समझ में नहीं आती यह बात!"
भगवान् ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा-"राजन्! तुम उनकी बाह्य मुद्रा और शरीर की निश्चेष्टता को देखकर ही ऐसा सोच रहे हो, किन्तु उनके मन में तो घमासान युद्ध मचा हुआ है। ऐसी स्थिति में मन से भी पंचेन्द्रिय वध का विचार करने से वह सप्तम नरक का अतिथि बन गया
इधर प्रसन्नचन्द्र राजर्षि मन ही मन अपने सामन्तों पर स्वमनःकल्पित शस्त्रों से प्रहार करते-करते खाली हाथ हो गए तो उन्होंने अपना मुकुट फैकने के लिए हाथ मस्तक पर घुमाया तो एकदम चौके-"अरे! मैं तो मुण्डित मस्तक साधु हूँ। तीन-करण तीन योग से हिंसा का सर्वथा त्यागी, और यह क्या घोर पापकर्म कर बैठा! कहाँ मैं वीतरागता का पथिक, और कहाँ आज राग-द्वेष के भंयकर जाल में आ फंसा! धिक्कार है मुझे!" इस प्रकार पश्चात्ताप और क्षमायाचना करते-करते शुभ परिणामों की श्रेणी पर पहुँच गए।
उधर श्रेणिकराज ने पुनः प्रश्न किया-"भगवन्! यदि इस समय प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का देहान्त हो तो वे कहाँ जा सकते हैं ?"
भगवान् ने कर्मों की गुरुग्रन्थी का विश्लेषण करते हुए कहा-इस समय वे कालधर्म को प्राप्त हों तो सर्वार्थसिद्ध नामक सर्वोच्च देवलोक में जा सकते हैं।
तब तक राजर्षि की पश्चात्ताप धारा इतने तीव्र वेग से प्रवाहित हुई कि जितने भी पापकर्मों का जाल गुंथा था, वे सब छिन्न-भिन्न होकर पुण्यराशि में परिवर्तित हो गए थे। और एक ही झटके के साथ उक्त पुण्यकर्मों को भी काट कर वे शुक्लध्यान की निर्विचार निर्विकल्प क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो गए। उन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो गया। आकाश में देवदुन्दुभियाँ बजने लगीं।
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