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कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३). .
अपनी पशुवध की वृत्ति को न रोक सका। वह हाथ की अंगुलियों से पानी पर लकीर करके भैंसे की प्रतिकृतिस्वरूप आकृति बनाने लगा फिर मनःकल्पित शस्त्र बनाकर उससे मन ही मन भैसे का वध करने का उपक्रम करता।' तन्दुलमच्छ की केवल मानसिक क्रिया से सप्तम नरकयात्रा ..
इसी प्रकार चावल के दाने जितना छोटा-सा तन्दुलमच्छ समुद्र में रहने वाले विशालकाय मगरमच्छ की भौंह पर बैठता है। वह बैठा-बैठा कायिक या वाचिक कोई भी क्रिया नहीं करता है। सिर्फ मन से ही सोचता है-"यह मगरमच्छ कितना आलसी है ? अगर मैं इसकी जगह होता तो एक भी प्राणी को नहीं छोड़ता, सबको निगल जाता।" यद्यपि इस तन्दुलमच्छ ने रक्त की एक बूंद भी नहीं बहाई, फिर भी इस प्रकार के क्रूरभावरूप कर्म के कारण मरकर सातवीं नरक भूमि में जन्म लेता है। ..
इसी प्रकार कोई व्यक्ति स्थूल रूप से वाचिक और कायिक कर्म न करता हुआ, मन से राग-द्वेष, काम-क्रोधादि कषायाविष्ट होकर कर्म करता है तो वह उक्त अनिष्टरूप पाप (अशुभ) कर्म के बंध से बच नहीं सकता। ध्यानस्थ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने मन से ही शुभ अशुभकर्म बाधे, और तोड़े
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि वन में ध्यानस्थ खड़े थे। वहाँ के निकटवर्ती मार्ग से मगधनरेश श्रेणिक के दो सेवक जा रहे थे। उनमें से एक ने उन्हें देखकर कहा-"अहा ! कितने शान्त, दान्त, तपोमूर्ति मुनि हैं ये !" इस पर दूसरे ने कहा-"कौन कहता है, ये मुनि हैं। ये ढोंगी हैं, दम्भी हैं और पलायनवादी हैं। बेचारे अल्पवयस्क पुत्र पर राजकार्य की जिम्मेवारी डालकर स्वयं साधु बन बैठे हैं। इन्हें पता नहीं है, जिन सामन्तों के हाथों में उस राजपुत्र को सौंपा है, वे उसे मारकर स्वयं राज्य हथिया लेंगे। और ये यहाँ कायर एवं भगोड़े साधु बनकर ध्यान में खड़े हैं।"
प्रसन्नचन्द राजर्षि के मन पर पूर्व के प्रशंसात्मक वचनों को सुनकर अपने प्रति रागभाव पैदा हुआ, और बाद के निन्दात्मक वचनों को सुनकर द्वेषभाव की उत्तेजना पैदा हुई। फलतः वे मन ही मन सोचने लगे-"क्या मेरे रहते, मेरे सामन्त मेरे पुत्र से राज्य हथिया लेंगे। मैं अभी उन्हें मार भगाता हूँ।" यों सोचकर मन ही मन उन्होंने युद्ध का उपक्रम कर लिया। शस्त्ररचना कर डाली और घमासान युद्ध छेड़ दिया। १. आवश्यक कथा से २. तन्दुलवेयालिय प्रकीर्णक (पइन्ना) से
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