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कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म ५०३
लिए वस्त्र चाहिये, वह नाना आकार-प्रकार के वस्त्रों का संग्रह करता है। और भी शारीरिक, मानसिक एवं सांस्कृतिक प्रयोजनों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अनेक प्रकार के सुख के साधन जुटाता है।
संक्षेप में प्रत्येक प्राणी शरीर-निर्वाह के लिये एक या दूसरे प्रकार से कुछ न कुछ कर्म करता है। इतना ही नहीं, अपनी इच्छा के अनुकूल, मनोज्ञ एवं अभीष्ट पदार्थ या संयोग मिलने पर वह हर्षित होता है, राग, मोह या आसक्ति करता है, तथा अपनी इच्छा के प्रतिकूल (सजीव या निर्जीव) पदार्थ या संयोग मिलने पर वह घबराता है, बेचैन एवं चिन्तातुर हो जाता है, उस पदार्थ से उसे घृणा, द्वेष, द्रोह-मोह या भीति-प्रीति (आसक्ति) होने लगती है। इष्टिवियोग और अनिष्ट के संयोग से दुःखी और अनिष्ट-वियोग एवं इष्टसंयोग से सुखी होता है। इस प्रकार की मानसिक और कभी-कभी वाचिक क्रियाएँ भी सांसारिक अज्ञ प्राणी के जीवन में सतत चलती रहती हैं। वह उन क्रियाकलापों से विरत नहीं हो पाता। इसीलिए भगवद्गीताकार कहते हैं___"कर्म न करने से तेरी शरीर-यात्रा (शरीर-निर्वाह की क्रिया) सिद्ध नहीं हो सकती है। इसलिए तेरे लिए (उच्चभूमिका पर न पहुँचे तब तक) कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेयस्कर है। अच्छा तो यह है कि (अपनी भूमिका के अनुसार) नियत किये हुए कर्म (कर्तव्य) को करो।" देहधारी प्राणी तब तक कर्ममुक्त या अकर्म नहीं हो पाता..
निष्कर्ष यह है कि देहधारी प्राणी जब तक आठों ही कर्मों से सर्वथा मुक्त, सिद्ध-बुद्ध नहीं हो जाता तब तक वह सर्वथा कर्ममुक्त नहीं हो पाता। और अकर्म भी तब तक नहीं हो पाता, जब तक वह राग-द्वेष रहित या कषायों से विरत होकर कर्म नहीं करता। अभिप्राय यह है कि जब तक जीव आत्मशुद्धि के उद्देश्य से एक मात्र कर्मक्षय करने की दृष्टि से सहज- भाव से कर्म नहीं करता, तव तक एक या दूसरे प्रकार से शुभ या अशुभ रूप में विविध कर्मों से प्रभावित होता रहेगा, वह बाहर से कर्म न करता हुआ भी मानसिक रूप से कर्म करता रहेगा। बाहर से निश्चेष्ट, मन से हिंसा कर्म करने में सचेष्ट : कालसौकरिक
. राजगृह-निवासी कालसौकरिक को मगधसम्राट् श्रेणिक ने कारागार में बंद करके उलटा लटकवा दिया था, ताकि वह किसी भी प्राणी, यहाँ तक कि भैंसे का वध न कर सके। किन्तु परम्परागत संस्कारवश कालसौकरिक १. "नियतं कुरु कर्मत्त्वं, कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्राऽपि च ते, न प्रसिद्धयेदकर्मणः ।।"
- भगवद्गीता ३/८
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