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________________ ५०२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) जाता। ऐसी निश्चेष्टता की स्थिति में भी वह मन से तो विचार करता रहता है, वह भी एक प्रकार का कर्म है। अतः कोई भी प्राणी बाहर से भले ही कर्म करता न दिखाई दे, परन्तु चेतनाशील होने के कारण अन्तर से तो कर्म करता ही रहता है। स्थूलरूप से कर्म न करने मात्र से कोई भी प्राणी 'अकर्म' या 'निष्कर्म नहीं हो जाता। कार्य न करने मात्र से निष्कर्ष या निर्लिप्त नहीं जैनदर्शन के मूर्धन्य विद्वान् पं. सुखलालजी प्रथम कर्मग्रन्थ की भूमिका में लिखते हैं-"साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम नहीं करने से अपने को पुण्य-पाप का लेप नहीं लगेगा। इससे वे काम को . छोड़ देते हैं, पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती। इससे वे इच्छा रहने पर भी पुण्य-पाप के लेप (बन्ध) से अपने को मुक्त नहीं कर सकते।"२. सांसारिक जीव अविरत कर्म संलग्न अतः सांसारिक प्राणियों के साथ कर्म अविरत संलग्न होने से वही उन्हें विविध योनियों और गतियों में परिभ्रमण कराता है। जब तक प्राणी संसार में स्थित है, तब तक पुराने कर्म आंशिकरूप से क्षीण होते जाते हैं, और नये कर्म बंधते जाते हैं। इस तरह प्रवाहरूप से कर्मों का सिलसिला जारी रहता है। शरीर-प्राप्ति के साथ ही कर्म का सिलसिला प्रारम्भ जबसे प्राणी को शरीर मिलता है, तभी से कर्म का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है। मन, वचन, काया, ये तीनों शरीर के ही महत्वपूर्ण अंग हैं। फिर शरीर के साथ विविध इन्द्रियाँ, वाणी तथा अंगोपांग आदि मिलते हैं। ऐसी स्थिति में प्राणी इस शरीर के निर्वाह के लिए नानाविध क्रियाएँ मन, वचन, शरीर, इन्द्रियों आदि से करता ही रहता है। शरीर की सुरक्षा, स्वस्थता, सुख-शान्ति और निश्चिन्तता के लिए कोई न कोई कार्य किए बिना वह रह ही नहीं सकता। शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पदार्थों के रहने-रखने के लिए वह मकान बनाता है, शरीर को स्वस्थ रखने के लिए चिकित्सा कराता है, शरीर की सुरक्षा के लिए वह कई प्रकार की व्यवस्था करता है। शरीर को भोजन चाहिए, वह तरह-तरह के भोज्य-पेय पदार्थ जुटाता है। शरीर को सर्दी-गर्मी से बचाने तथा लज्जानिवारण के १. कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते। -गीता, ३/६ २. कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग की भूमिका पृ. २५-२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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