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________________ आत्मा का अस्तित्व : कर्म- अस्तित्व का परिचायक २९ आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का स्वरूप जिन दार्शनिकों ने आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व माना, उन्होंने आत्मा (पुरुष या चिदात्मा) को अजर, अमर, अक्षय, अमृत, अव्यय, अजन्मा, नित्य, ध्रुव, शाश्वत और अनन्त (अविनाशी) माना' । साथ ही उसका लक्षण भी कठोपनिषद् में बताया गया कि वह अशब्द, अरूप, अव्यय, अरस, नित्य, अगन्धवत्, अनादि - अनन्त, तथा महत्तत्त्व से पर, एवं ध्रुव है । ऐसी आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य मृत्यु के मुख से मुक्त हो जाता है। आचारांग आदि जैनागमों में भी आत्मा का निश्चय दृष्टि से इसी प्रकार का वर्णन किया है। साथ ही विज्ञान को आत्मा और आत्मा को विज्ञान कहा है। २ आत्मा का यह स्वरूप- कथन निश्चय दृष्टि से किया है। जैनदर्शन आत्मा को कूटस्थ - नित्य नहीं मानता। कूटस्थ - नित्य मानने पर तो आत्मा शरीर, मन, वचन आदि की चेष्टा नहीं कर सकता, न ही कोई क्रिया कर सकता है, न परलोक में विविध गतियों, योनियों आदि में परिभ्रमण कर सकता है। इसलिए जैन दर्शन आत्मा को परिणामीनित्य मानता है। व्यवहारदृष्टि से 'द्रव्यसंग्रह' में आत्मा का स्पष्ट स्वरूप इस प्रकार बताया गया है- "जीव (आत्मा) उपयोगमय है, अमूर्त (अरूपी) है, कर्त्ता है, स्वदेहपरिमाण है, प्रतिव्यक्ति भिन्न है, भोक्ता है, स्वभाव से ऊर्ध्व-गमन करता है, तथा संसारी एवं सिद्ध (दो प्रकार का) है।"‍ 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में इसे प्रमाता प्रत्यक्षादि सिद्ध, चैतन्यस्वरूप, परिणामी - नित्य, कर्ता, साक्षात् भोक्ता, स्वदेह - परिमाण, प्रतिक्षेत्र भिन्न, पौद्गलिक, अदृष्टवान् आत्मा बताया गया है । ४ १ (क) अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो ........│ (ख) कठोपनिषद् ३/२ (ग) जीवा अणाइनिधनो अविणासी अक्खओ धुवो णिच्वं । (घ) .. धुवे णितिए सासए अक्खए अव्व अवट्ठिए णिच्चे । - भगवद्गीता २/२० - भगवतीसूत्र • स्थानांग सूत्र ५/३/५३० २ (क) कठोपनिषद् १/३/१५ (ख.)......जीवत्यिकाए ....अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे जाव अरूवी ।' Jain Education International - भगवतीसूत्र २०/१०, तथा स्थानांगसूत्र ५/३/५३०, आचारांग १/५/६ तथा १/५/६/५९६ १३ जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो । भोत्ता संसारत्यो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ।। - द्रव्यसंग्रह गा. २ ४ प्रमाता प्रत्यक्षादि प्रसिद्ध आत्मा । चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्त्ता साक्षाद्भोक्ता स्वदेहपरिमाण प्रतिक्षेत्र भिन्नः पौद्गलिकाऽदृष्टवांश्चायम्॥" -प्रमाणनयतत्त्वालोक ७/५५-५६ : For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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