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________________ ३० कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) आत्मा अमूर्त होने से उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये चार पुद्गल (जड़) के धर्म नहीं पाये जाते। फिर भी शरीर से इसका संयोग-संबंध होने से वह जीव के अपने-अपने छोटे-बड़े शरीर के परिमाण के अनुसार छोटा-बड़ा-संकोच-विस्तारवाला-हो जाता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जैनदर्शन संसारी आत्मा को कथंचित् मूर्त तथा असंख्यात प्रदेश वाला मानता है। चूंकि उसका (संसारी जीव का) अनादिकाल से कार्मण (सूक्ष्मतर) शरीर से सम्बन्ध है। अतः कर्मोदय से प्राप्त शरीर के आकार के अनुसार छोटे-बड़े आकार को धारण कर लेता है। आत्मा का असाधारण गुण : चैतन्य जीव (आत्मा) का सामान्य लक्षण चैतन्य या उपयोग है। यही जीव (आत्मा) का असाधारण गुण है, जिससे वह तमाम जड़ (अजीव) द्रव्यों से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है।' आत्मा को सर्वव्यापी एवं एकान्त अमूर्त मानना भी ठीक नहीं. वैदिक दर्शनों में आत्मा को अमूर्त और व्यापक माना गया है। उनका कथन है कि व्यापक होने पर भी शरीर और मन से सम्बद्ध होने के कारण शरीरावच्छिन्न (शरीर के भीतर के) आत्म प्रदेशों में ज्ञानादि-विशेष गुणों की उत्पत्ति होती है। अमूर्त होने से आत्मा निष्क्रिय है, जो भी गति होती है, वह शरीर और मन के चलने से होती है तथा अपने से सम्बद्ध आत्मप्रदेशों में ज्ञानादि की अनुभूति होती रहती है।"२ । आत्मा को इस प्रकार सर्वव्यापी मानने से सब आत्माओं का सबके शरीरों के साथ सम्बन्ध हो जाने से एक के शुभ या अशुभ कर्म का फल सबको भोगना पड़ेगा, इस प्रकार कर्मों एवं कर्मफलों का परस्पर मिश्रण हो जाएगा। फिर अपने-अपने सुख -दुःख, उन्नति- अवनति, श्रेय-प्रेय, भोगत्याग का नियम नहीं रहेगा। प्रत्येक जीव के कर्म या अदृष्ट का सम्बन्ध उसकी आत्मा के समान शेष अन्य आत्माओं के साथ हो जाएगा। व्यापक १ (क) गुणओ उवओगगुणो । -स्थानांग ५/३/५३० (ख) उपयोगो लक्षणम् ।। -तत्वार्थ. २/८ (ग) जीवो उवओगलक्षणो। - उत्तरा. २८/१० (घ) उवओगलक्खणे जीवे।' -भगवती २/१० (ङ) नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं । -उत्तराध्ययन सूत्र २८/११ २ (क) सर्वव्यापिनमात्मानम् । -श्वेताश्वतरोपनिषद् १/१६ (ख) 'अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । . अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्मः आत्मा कपिलदर्शने ॥' -षड्दर्शनसमुच्चय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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