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________________ २८ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) जाती हैं अतः उन्हें किसी भी प्रकार का ज्ञान नहीं होता। जब मानव नींद से जागता है या फिर से जन्म लेता है तब जैसे चिनगारी से अग्नि प्रगट होती है वैसे ही प्रज्ञा से इन्द्रियाँ बाहर आती हैं और मानव को ज्ञान होने लगता है। इन्द्रियाँ प्रज्ञा के एक अंश के सदृश हैं, अतः प्रज्ञा के अभाव में वह कार्य नहीं कर सकतीं। अतः इन्द्रियाँ और मन से भिन्न प्रज्ञात्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। __ कठोपनिषद में एक के पश्चात् द्वितीय श्रेष्ठतर तत्त्वों की परिगणना की गई। वहाँ पर मन से बुद्धि, बुद्धि से महत्, महत् से अव्यक्त प्रकृति और प्रकृति से पुरुष को उत्तरोत्तर उच्च माना है। इससे यह सिद्ध होता हैं कि विज्ञान किसी चेतन पदार्थ का धर्म नहीं अपितु अचेतन प्रकृति का ही धर्म है। इस मत को देखते हुए विज्ञानात्मा की शोध पूर्ण होने पर आत्मा पूर्णतः चेतन स्वरूप है-यह सिद्ध हो गया। उसके पश्चात् आनन्द की पराकाष्ठा आत्मा में है इसलिए आनन्दात्मा की कल्पना की गई। जब चिन्तन के चरण आगे बढ़े तब चिन्तकों ने कहा-अन्नमय आत्मा जिसे शरीर भी कहा जाता है, रथ के समान है, उसे चलाने वाला रथी ही वास्तविक आत्मा है। आत्मा के अभाव में शरीर कुछ भी नहीं कर सकता। शरीर और आत्मा ये दोनों अलग-अलग तत्व हैं। केनोपनिषद् में आत्मा को इन्द्रिय और मन से भिन्न माना। जैसे विज्ञानात्मा की अन्तरात्मा आनन्दात्मा है वैसे आनन्दात्मा की अन्तरात्मा सदरूप ब्रह्म है। तैत्तिरीय उपनिषद् में विज्ञान और आनन्द से भी अलग ब्रह्म की कल्पना की गई। माण्डूक्य उपनिषद् में ब्रह्म और आत्मा ये दोनों अलग-अलग तत्त्व नहीं, अपितु एक ही तत्त्व के पृथक-पृथक नाम हैं। संक्षिप्त में सार यह है कि चिन्तकों ने पहले भौतिक तत्व को आत्मा माना। उसके पश्चात् उन्होंने अभौतिक आत्म तत्त्व को स्वीकार किया। यह अभौतिक आत्म तत्त्व इन्द्रियग्राह्य न होकर अतीन्द्रिय था। कठोपनिषद् में नचिकेता आत्म तत्त्व को जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक है। वह स्वर्ग के सुखों को भी तिलांजलि दे देता है। मैत्रेयी आत्म-विद्या को जानने के लिए पति की विराट् सम्पत्ति को ठुकरा देती है। याज्ञवल्क्य कहता है कि पति-पत्नी, पुत्र, धन, पशु ये सभी वस्तुएँ आत्मा के निमित्त से हैं ? अतः आत्मा को देखना चाहिए। उसी का चिन्तन-मनन करना चाहिए। इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में जिन विविध विचारों का विकास हुआ, उनका संकलन उपनिषद् साहित्य में हुआ है। उपनिषदों की रचना के पूर्व अवैदिक परम्परा भारत में विद्यमान थी। और वह बहुत ही विकसित अवस्था में थी। वह अवैदिक परम्परा श्रमण परम्परा थी। उसी से वैदिक परम्परा ने आध्यात्मिक मार्ग को ग्रहण किया था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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