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कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४८१
और क्रिया-शक्ति। ज्ञान के प्रति उपयुक्त होने पर उपयोग तथा क्रिया के प्रति उपयुक्त होने पर 'योग' कहलाती है।' यहाँ कर्म के प्रसंग में क्रियारूप योग ही प्रधान है ____यद्यपि प्रसंगवशात् यहाँ 'उपयोग' (ज्ञान-दर्शन उपयोग) का कथन कर दिया है, तथापि 'कर्म' के पक्ष में क्रियारूप या प्रवृत्तिरूप 'योग' ही प्रधान है, उपयोग नहीं। यद्यपि समग्र को युगपत् जानना तथा आत्मानुभव करना वास्तविक ज्ञातृत्व-भोक्तृत्व है, तथापि कर्म की प्रक्रिया के रूप में जिस ज्ञातृत्व तथा भोक्तृत्व का ग्रहण किया जाता है, वह सब क्रियारूप या प्रवृत्तिरूप है। अर्थात्-ज्ञातृत्व एवं भोक्तृत्व का ग्रहण भी यहाँ कर्म के रूप में किया जाता है। चूंकि समग्र को जानना ज्ञातृत्व मात्र न होकर ज्ञातृत्व क्रिया है, क्योंकि इसमें भी पूर्व-पूर्व विषय को छोड़कर उत्तर-उत्तर विषयों के प्रति नेत्रादि ज्ञानेन्द्रियाँ दौड़ती रहती हैं, इसलिए ज्ञातृत्व भी क्रियारूप है। तथा इष्ट विषय को ग्रहण करके अनिष्ट विषय का त्याग करना भोक्तृत्व पक्ष की क्रिया है, जो अन्तःकरण की भाग-दौड़ है और कर्मेन्द्रियों द्वारा तो प्रत्यक्ष क्रिया दृष्टिगोचर होती है। ये तीनों प्रकार के करण क्रियारत-प्रवृत्तिरूप होते हैं। इसलिए कर्म के प्रसंग में इन तीनों की क्रिया को 'योग' कहा गया है। योग शब्द का शास्त्रीय अर्थ
योग शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-दो पदार्थों का पारस्परिक जुड़ना। पूर्वोक्त तीनों प्रकार की क्रियाओं-प्रवृत्तियों में चेतना का जुड़ान (योग) करणों के साथ होता है, इसलिए शास्त्र में इन तीनों (मन, वचन, काय) की प्रवृत्ति को 'योग' कहा गया है। योग : करणों के माध्यम से चेतनाशक्ति का चचल होना
वस्तुतः करणों के माध्यम से चेतनाशक्ति का क्षुब्ध, चंचल, स्पन्दित अथवा क्रियाशील हो उठना उसका 'योग' कहलाता है। योग का लक्षण चंचलता या परिस्पन्दन होने से वह एक ही प्रकार का प्रतीत होता है, किन्तु क्रिया या कर्म की दृष्टि से देखने पर वह ज्ञातृत्व, कर्तृत्व एवं भोक्तत्व रूप से तीन प्रकार का है, तथैव करणों की अपेक्षा भी तीन प्रकार का है। योग तीन प्रकार के हैं- मन, वचन और काय। मन कहने से मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन चारों (अन्तःकरण) का ग्रहण हो जाता है। वचन १. कर्मरहस्य ( जिनेन्द्रवर्णी) से पृ. १०१-१०२ २. वही, पृ. १०५-१०६ .
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